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________________ ... कल्पसूत्रे सशब्दार्थ ॥६१६॥ लिये संवर करके सकल पापों से रहित, अतएव अतीत अनागत वर्तमान कालीन सब पापपरिपापों से मुक्त, अनिदान-नियाणा रहित; सम्यग्दर्शन सहित तथा माया मृषाका त्यागी वक ऐसा मैं श्रमण, अढार द्वीप, पन्द्रह क्षेत्र (कर्मभूमियों) में विचरनेवाले, रजोहरण पूंजनी || स्वीकारः पात्रं को धारण करनेवाले और डोरासहित मुखवस्त्रिका को मुख पर बांधनेवाले, पांच महाव्रत के पालनहार और अठारह हजार शीलाङ्गरथ के धारक तथा आधाकर्म आदि ४२ दोषों को टालकर आहार लेनेवाले ४७ दोष टालकर आहार भोगने वाले, अखण्ड आधार चारित्र को पालने वाले ऐसे स्थविरकल्पी, जिनकल्पी मुनिराजों को 'तिक्खुत्तो' के पाठ से वन्दना करता हूं ॥२२॥ मूलम्-पव्वावणायरिए भंते केवामेव पव्वावेइ ? गोयमा ! सोभणंसि तिहिकरण दिवस नक्खत्तमुहुत्तजोगंसि पव्वावणायरिए पव्वावेइ। पव्वज्जाए ॥६१६॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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