SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 630
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कल्पसूत्रे सशब्दार्थे ॥६१४॥ युक्त होते हैं, केवलपदको प्राप्त होते है, कर्मबन्ध से मुक्त होते है, सर्व सुखको प्राप्त ॥ पापपरिहोते है, और शारीरिक मानसिक सर्व दुःखों से निवृत होते हैं। उस धर्म की मैं श्रद्धा हारपूर्वक करता हूं अर्थात् एक यही संसार समुद्र से तारनेवाला है ऐसी भावना करता हूं, अन्तः- स्वीकारः करणः से प्रतीति करता हूं, उत्साहपूर्वक आंसेवन करता हूं, आसेवना द्वारा स्पर्श करता हूं और प्रवृद्ध परिणाम [उच्चभाव] से पालता हूं और सर्वथा निरन्तर आराधना करता हूं। उस धर्म में श्रद्धा करता हुआ, प्रतीति करता हुआ, रुचि रखता हुआ, स्पर्श करता हुआ पालन करता हुआ और सम्यक् पालन करता हुआ उस केंवलि प्ररूपित धर्म की आराधना के लिये में उद्यत हुआ हूं। तथा सब प्रकार की विराधना से निवृत्त हुआ हूं। अतएव असंयम [प्राणातिपात आदि अकुशल अनुष्ठान] को ज्ञपरिज्ञा से जानकर और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से परित्याग कर सावद्य अनुष्ठान निवृत्तरूप संयम को स्वीकार करता हूं। मैथूनरूप अकृत्य को छोडकर ब्रह्मचर्यरूप शुभ अनुष्ठान को स्वीकार करता हूं। अकल्पनीय को छोडकर है ॥६१४॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy