SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 552
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - कल्पपत्रे सशन्दायें। AKSHARAM ॥५३६॥ कारणेणं विणा किंपि कज्जं संपज्जए] कर्म के शिवाय और कुछ भी प्रतीत नहीं होता।। अग्निभूतेः शङ्का[अह य जहा मुत्तस्य घडस्स अमुत्तेणं आगासेण सह संबंधो तहा कम्मणो जीवे- निवारणम् । ण सह] और जैसे मूर्त घट का अमूर्त आकाश के साथ सम्बंध होता है, उसी प्रकार प्रव्रजन च कर्म का जीव के साथ सम्बन्ध होता है [जहा य मुत्तेहि नानाविहेहि मज्जेहि, ओसहेहि । य अमुत्तस्स जीवस्स उवघाओ अणुग्गहो य हवंतो दिसइ] जसे नाना प्रकार के मूर्त । मयों से और मूर्त औषधों से जीव का उपघात और अनुग्रह होता हुआ लोक में . देखा जाता है [तहेव अमुत्तस्स जीवस्स मुत्तेण कम्मुणा उवधाओअणुग्गहो य मुणेयव्वो] । उसी प्रकार अमूर्त जीव का मूर्त कर्म के द्वारा उपघात और अनुग्रह जानना चाहिये। [अह य वेयपएसु वि न कत्थई कम्मुणो निसेहो तेण कम्मं अस्थि त्ति सिद्धं] इसके ! अतिरिक्त वेद पदों में भी कहीं भी कर्म का निषेध नहीं किया गया है, अतः कर्म है, ! यह सिद्ध हुआ। [एवं पहुवयणेण संसयम्मि छिन्नम्मि समाणे हट्टतुट्ठो अग्गिभूई वि . ॥५३६॥ R 27.
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy