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________________ इन्द्रभूते निवारणम् प्रतिबोधश्च कल्पसूत्रे । अर्थात् कोई भी नहीं हो सकता। जीव के बिना पुण्य पाप को उत्पन्न करनेवाला सशब्दार्थ । व्यापार संभव नहीं है। इसलिये पुण्य पाप का कर्ता होने से जीव का अस्तित्व ॥५२२॥ | सिद्ध होता है। जीव है, इसमत को फ़िर पुष्ट करते हैं-तुम्हारे माने हुए यज्ञदान आदि कार्यो के करने का निमित्त जीव के अभाव में कौन होगा ? जीव ही उन कार्यो के करने का निमित्त हो सकता है, क्योंकि व्यापार जीव के अधीन है। इस से भी जीव है, यह सिद्ध होता है। इस प्रकार जीव का अस्तित्व सिद्ध कर के अब वेद के प्रमाण से उसे सिद्ध करने के लिये कहते हैं तुम्हारे शास्त्र में भी कहा है- सर्वे अयमात्मा ज्ञानमयः'-चित्त आदि लक्षणों से प्रतीत होने वाला यह 1 आत्मा ज्ञानघन रूप है। अतः जीव ह, यह मत सिद्ध हुआ। इत्यादि प्रभु के बचनों को सुनकर इन्द्रभूति का मिथ्यात्व उसी प्रकार गल गया, जसे जल में लवण गल जाता है सूर्य का उदय होने पर अंधकार नष्ट हो जाता है और चिन्तामणी ॥५२२॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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