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________________ कल्पसूत्रे सशब्दार्थे ॥४०॥ चित्त उवउत्तमाणसाणं से पायत्ताणियाहिवई देवे तेसिं घंटारवंसि निसंत संत पडिसिसमाणंसि तत्थ २ तहिं २ देसे २ महया २ सद्देण उग्घोसेमाणे २ एवं वयासी (गाहा) हंदि सुणंतु भवंतो बहवे सोहम्मवासिणो देवा सोहम्मकप्पवइणो इणमो वयणहियसुहत्थं आणवेइ णं भो सक्के तं चैव जाव अंतियं पाउब्भव ॥७॥ भावार्थ-उस समय उस सौधर्म देवलोक में रहनेवाले बहुत वैमानिकदेव और देवियां रमने में एकांत आशक्त हो रहे थे । एकांत प्रेमानुरागरक्त बने थे विषयसुख में मूच्छित बने हुए थे वे मधुर शब्द वाली सुघोष घंटा से जागृत हो जाते और उद्घोषणा सुनने के लिए कान व मन को एकाग्र बनालेते हैं वह अधिपति उस घंटा शब्द से शांत बने हुवे स्थान में बडे २ शब्द से उद्घोषणा करते हुवे ऐसा कहते हैं कि सौधर्मदेवलोक में रहनेवाले बहुत देवता व देवियां तुम यह हितकारी व सुख करनेवाले शक्रेन्द्रत तीर्थंकर जन्म महोत्सवः ||४०||
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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