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________________ कल्पसूत्रे AASHRAM REASONEYए सशब्दार्थ ॥४८७|| यज्ञवाटकं गुंजति वायसा निंबतरुम्मि] भ्रमर आम्र की मंजरी पर गुणगुनाते हैं परंतु कौए नीम परित्यज्याके पेड को ही पसन्द करते हैं [अत्थु, तहवि अहं तस्स सव्वण्णुत्तगव्वं चूरिस्सामि]. न्यत्र देवगमनात् अस्तु, फिर भी मैं उसके सर्वज्ञता के अहंकार को चूर-चूर करूंगा। [हरिणो सीहेण] तत्रस्थिता| तिमिरं भक्खरेण, सलभो वण्हिणा, पिवीलिया समुद्देणं, नागो गरुडेणं पवओ वज्जेणं | नामाश्चर्या दिक| मेसो कुंजरेण सद्धिं जुज्झिउं किं सकेइ] क्या हिरण सिंह के साथ, अंधकार सूर्य के साथ, ool वर्णनम् पतंग आग के साथ, चींटी समुद्र के साथ, सर्प गरुड के साथ, पर्वत वज्र के साथ और | मेढा हाथी के साथ युद्ध कर सकता है ? कभी नहीं कर सकता [एवं चेव एसो इंद| जालियो ममंतिए खणंपि चिहिउं नो सकेइ] इसी प्रकार वह इन्द्रजालिक मेरे सामने एक क्षणभर भी नहीं ठहर सकता [अहुणेव अहं तयंतिए गमिय तं धुत्तं पराजिनेमि] अभी इसी समय मैं उसके पास जाकर उस धूर्त को पराजित करता हूं। [सुज्जतिए | | खज्जोअस्स वरागस्स का गणणा] सूर्य के समक्ष बेचारे जूगनू की क्या गिनती! ॥४८७॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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