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________________ -134 RE 17 कल्पयो सशब्दार्थे ॥४८३॥ न्यत्र वर्णनम् वाइवच्छन्मूलणवारण वाइदइच्च देववई ! वाइसासणनरेस ! वाइकंसकंसारी ! यज्ञवाटकं परित्यज्यावाइहरिणमिगारि ! वाइज्जरजरंकुरण ! वाइजूइमल्लमणी ! वाइहिययसल्लवर! देवगमनात् वाइसलहपज्जलंतदीवग! वाइचक्कचूडामणि ! पंडियसिरोमणी ! विजियाणेगवाइ Mतत्रस्थितावाय! लद्धसरस्सइसुप्पसाय! दूरिकयावरगव्वुमेस! इच्चाहजसं गायंतेहिं पंच- नामाश्चर्यासयसीसेहिं परिखुडो जयजय सद्देहिं सदिजमाणो पहुसमीवे समणुपत्तो तत्थ गंतूण सो समोसरणसमिद्धिं पहुतेयं च विलोइय कियंति चगियचित्तो संजाओ॥११॥ ___ शब्दार्थ-[एवं परोप्परं कहमाणेसु समाणेसु एत्यंतरे ते देवा जन्नवाडयं चइय अग्गेपट्टिया] वे परस्पर इस प्रकार कह ही रहे थे कि इस बीच वे देव यज्ञस्थान को छोड कर आगे चले गये [तं दणं ते जन्नजाइणो माहणा निक्कंपा नित्तेया ओमंथियवयणनयणकमला] यह देखकर याज्ञिक ब्राह्मण स्तब्ध रह गये, निस्तेज रह गये, ॥४८३॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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