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________________ भिध ॥४७२॥ समागता कल्पसूत्रे पाचवें इतिहास के [निघंटु छट्ठाणं संगोवंगाणं सरहस्साइं सारया वारया धारया] और सोमिलासशब्दाथै 3 छठे निघंटु के स्मारक [दूसरों को याद कराने वाले] वारक [अशुद्ध पाठ को रोकने । ब्रह्मणस्य वाले] और धारक [अर्थ के ज्ञाता] [सडंगवी सद्वितंत विसारया] छहों अंगों के ज्ञाता, यज्ञवाटके 10 षष्ठी तंत्र [सांख्य शास्त्र] में विशारद [संखाणे सिक्खाणे सिक्खाकप्पे] गणित में, शिक्षण | नेक ब्राह्ममें शिक्षा कल्प में [वागरणे छंदे निरूत्ते जोइसामयणे] व्याकरण में छंद में निरुक्त में णनामानि ज्योतिष में [अन्नेसु य बहुसु बंभण्णएसु परिवायएसु नएसु सुपरिनिट्ठिया सव्वविह बुद्धि निउणा] तथा अन्य बहुत से ब्राह्मणों के शास्त्रों में तथा परिव्राजकों के आचार शास्त्र में कुशल, सब प्रकार की बुद्धियों से सम्पन्न [जण्णकम्मनिउणा इंदभूइपभिइणो एगारस माहणा सय सयसिस्सपरिवारेण परिवुडा जण्णकम्मनिउणा तत्थ जपणं कुणंति] यज्ञ कर्म में निपुण इन्द्रभूति आदि ग्यारह ब्राह्मण अपने अपने शिष्य परिवार सहित यज्ञ कर रहे थे [तहा अपणे वि तत्थ बहवे उवज्झाया] इनके अतिरिक्त ॥४७२॥ SCSSA
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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