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________________ 'कल्पसूत्रे सशब्दार्थे ॥४६२॥ प्रभुसमीपा गमनम् सिंहसेनउवागच्छंति, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमणं अभि राज्ञः गच्छंति, तं जहा-१ सचित्ताणं दव्वाणं विओसरणयाए २ अचित्ताणं दव्वाणं सपरिवार अविओसरणयाए, ३ विणओणयाए गायलट्ठीए, ४ चक्खुप्फासे अंजलिपग्ग| हेणं, ५ मणसो एगत्तीभावकरणेणं समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपायाहिणं करेंति, करित्ता वंदति णमंसंति, वंदित्ता णमंसित्ता सीहसेंणरायं पुरओ चेव सपरिवाराओ अभिमुहाओ विणएणं पंजलिउडाओ पज्जुवासंति॥८॥ भावार्थ-वे प्रभु साधु सामाचारी के अनुसार वनमाली की आज्ञा लेकर अशोक वृक्ष के नीचे पृथिवी शिलापट्टक पर पूर्व की और मुखकर पर्यङ्क आसन से 'पलथी मार (1) कर' विराजमान हुए । वे अरहा केवली जिन महावीर प्रभु तप एवं संयम से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। उसके वाद वनमाली जहां सिंहसेन राजा ॥४६२॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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