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________________ कल्पसूत्रे सदा ॥४.३६॥ काल का अथवा जातिक हेतुक बद्ध निकाचित वेरबंध हुवा होवे जैसे वैमानिक देव असुरकुमार, नागकुमार, भवनपति, ज्योतिषी यक्ष, राक्षस वगैरह वाणव्यंतर, गरुड गंधर्व महोरगव्यंतर विशेष वे सब वैर भाव का त्याग करके अरिहंत के चरण कमल में प्रसन्न चित्त से धर्म श्रवण करे २५ अन्य तीर्थिक कपिलादिक भी आये हुवे भगवंत को नमस्कार करे २६ वे आये हुवे अन्यशास्त्र के वादी प्रतिवादी भगवंत के चरणकमल में उत्तर देने को सर्मथ होवे नहीं २७ जिस तरफ भगवंत विहार करे उस तरफ पच्चीस २ योजन तक धान्य को उपद्रव करने वाले मूषकादि होवे नहीं २८ मार मरकी are किसी प्रकार की रोगों की उत्पत्ति होवे नहीं २९ स्वदेश के कटक का उपसर्ग होवे नहीं ३० परचक्री पर राजा की सेना का उपद्रव होवे नही ३१ अधिक वृष्टि होवे नहीं ३२ अनावृष्टि होवे नहीं ३३ अभिक्ष दुष्काल पडे नहीं ३४ जहां मार मरकी, स्वचकी, परचक्री अतिवृष्टि, अनावृष्टि दुष्काल पहिले हुवा होवे और वहां भगवंत का 333269230 भगवतः समय सरणम् ॥४३६॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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