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________________ कल्पसूत्रे शब्दार्थे ॥ ३७८ ॥ 00000 वह शीघ्र ही भोयरे के द्वार के समीप गये । भोंयरे का ताला तोडा । द्वार खोला, बसुती को धीरज बंधाने वाले वचन कहकर संतोष दिया मूला जब अपने पिता के घर गई थी तो बरतन - भांडे सब गुप्त जगह में रख गई थी अतएव सेठ को जल्दी में न कोई बरतन मिला और न भोजन ही कहीं दिखाई दिया । केवल जानवरों के लिए उबले हुए, जिन्हें लोक भाषा में 'बाकुला' कहते हैं, वहीं मिले। दूसरा बरतन न होंने के कारण सूप में ही उन्हें लेकर धनावह सेठ ने वह वसुमति को दिये । सेठ स्वयं बेडी वगैरह को काटने के हेतु लुहार बुलाने के लिये लुहार के घर चले गये । बंधे हुए हाथों-पैरों वाली वसुमती उबले हुए उड़द वाले सूप को हाथ में लेकर सोचने लगी - इससे पहले मैंने साधुओं को अशनपान खादिम और स्वादिम का दान देकर ही पारणा किया है ? आज विना दान दिये पारणा कैसे करूं ? कैसा गर्हित कर्म मेरे उदय में आया है, जिसके दुर्विपाक के कारण मैं दासीपन आदि की इस दशा को प्राप्त हुई चंदनबालायाः चरितवर्णनम् ॥ ३७८ ॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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