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________________ कल्पसूत्रे शब्दार्थे ॥ ३५० ॥ फलं ] न जाने मैंने क्या पापकर्म किया है ! जिसका यह अशुभ फर उदय में आया है [अहं केरिसी अधण्णा अपुण्णा अकयत्था अकयपुण्णा अकयलक्खणा अकविवा कुलद्वेणं मए जम्मजीवियफले] मैं कैंसी अधन्य हूं, पुण्य-हीन हूं, अकृतार्थ हूं, मैंने पुण्यउपार्जन नहीं किया ! मैं सुलक्षणी नहीं हूं मैंने कोई वैभव नहीं पाया ! मुझे जन्म का और जीवन का कैसा दुष्फल मिला है । [जीए इमा एयारूवा दुहपरम्परा लद्धापत्ता अभिसमन्नागया ] जिससे कि मुझे ऐसी दुःखपरम्परा की उपलब्धि हुइ, प्राप्ति हुई और दुःखपरम्परा ही मेरे सामने आइ [मम अट्ठमतव पारणगे समागओ एयारिलो गहियभिग्गहो महामुणी महावीरो भगवं अपड़िलाभिओ चेव पडिनियत्तो] मेरे तेले के पारणे अवसर पर आये हुए ऐसे अभिग्रहधारी महावीर भगवान् आहार लिये विना ही लौट गये [गिहागओ कप्परुक्खो हत्थाओ अवसरिओ] जैसे घर में आया हुआ कल्पवृक्ष ही हाथ से चला गया [हत्थगयं वज्जरयणं अभिग्रहार्थ : मटमाणस्य भगवत विषये लोक वित कदिकम् ॥३५०॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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