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________________ HOM फल्पसत्रे सशब्दार्थे -- ||३२५॥ वर्णनम् डिपणेण भगवया 'अण्णवि मुणिणो एवं रियंतुति कटु बहुसो अणुकंतो॥५४॥ भगवत २. शब्दार्थ-[तए णं भगवं रोगेहिं अपुढेऽवि ओमोयरियं सेवित्था] उसके बाद भग-3 आचारपरि पालनविधे वान् ने रोगों से अस्पृष्ट होकर भी उनोदरी तप का सेवन किया [अहय सुणगदसणाईहिं पुरे वि, काससासाइएहिं रोगेहिं अपुढे वि भाविसंकाए णो से तेइच्छं साइज्जीअ] इसके अतिरिक्त श्वानदशन आदि से स्पृष्ट होकर भी और श्वास, खांसी आदि रोगों से स्पृष्ट न होकर भावी रोग की आशंका से भी भगवान् ने चिकित्सा न करवाई [भगवं संसोहणं वमणं गायलंगणं सिणाणं संवाहणं दंतपक्खालणं च कम्मबंधणं परिप्रणाय नो सेवीअ] मलाशय का संशोधन, वमन, मालिश, स्नान मर्दन और दंतधावन को कर्मबन्धन का कारण जानकर सेवन नहीं किया [गामधम्माओ विरए अवाई माहणे रीइत्था] मैथुन से विरत और मौनधारी होकर माहन विचरे [सिसिरस्मि भगवं छायाए आलीणे झाईअ] शिशिर मातु में भगवान् वृक्ष की छाया में बैठकर ध्यान करते थे ॥३२५॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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