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________________ कल्पसूत्रे सदायें ॥२१॥ योजन का दंड बनाती है रत्न यावत् संवर्तक वायु की विकुर्वणा करती है फिर उस कल्याणकारी मृदु अनुद्धृत भूमितल को विमल करनेवाला मनहर सब ऋतु के सुगंधित पुष्पों की गंध का विस्तार करनेवाला और सुगंध के लानेवाला ऐसा तीच्छ वायु से भगवान् तीर्थंकर का जन्म भवन से चारों तरफ एक एक योजन के मंडल में जो कुच्छ तृण कचवर अशुचि व दुरभिगंध वगैरह होवे उसे लेकर दूर डाल देती हैं जैसे कोई किंकर ( झाडू निकालनेवाला) काम करता हो वैसे करती है, फिर जहां भगवान् तीर्थकर व उनकी माता हो वहां आकर पासमें गीत गाती हुई विशेष गाती हुई खडी रहती है ॥२॥ उस काल उस समय में ऊर्ध्वलोक में रहनेवाली महत्तरिका आठ दिशाकुमारियां अपने २ कूटमें अपने २ भवन में अपने २ प्रासादावतंसक में अपने २ चार हजार सामानिक सहित यावत् विचरती हैं जिनके नाम-१ मेघंकरा २ मेघवती ३ सुमेघा ४ मेघमालिनी ५ सुवत्सा ६ वत्समित्रा ७ वारिषेणा और ८ बलाहका० उस समय तिर्थकराभिषेक- । निरूपणम् ॥२१॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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