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________________ हा कल्पसूत्रे सशब्दार्थे ॥३१०॥ कहने पर भगवान् सोचते-'ताडना आदि को सह लेना उत्कृष्ट धर्म है, और यह भगवतो विहारसोचकर वे चुपचाप, बिना कुछ कहे, निकल जाते थे । शीतल वायु से युक्त शिशिर स्थानऋतु में, शीतलता के कारण मनुष्यों को कमकंपी उत्पन्न करने वाली हवा चलती थी। वर्णनम् 2 उस समय कितने ही साधु ऐसे स्थान खोजते फिरते थे जहां वायु का प्रवेश न हो। कोई-कोई जन शीत की भीति से कहते थे-'हम तो शीत को रोकने वाले वस्त्र में दुबक जाएँगे।' कई संन्यासी लोग आग में ईंधन जलाकर तापते थे। कोई सोचते थे-वस्त्र ओढने से ही महाकष्टकर सर्दी सहन की जा सकती है। ऐसे शीतकाल में भी । मोक्ष के अभिलाषी भगवान् इहलोक-परलोक संबंधी समस्त कामनाओं से दूर रहकर सर्दी के भयवाले स्थान में वृक्ष के नीचे रहकर उस दुस्सह शीत को अचल भाव से सहन करते थे। मेरे सिवाय अन्य मुनि भी इस प्रकार विहार करें-संयम की साधना करें' ऐसा विचार करके भगवान् वीर स्वामी ने बारम्बार इस आचार का पालन किया ॥५२॥ ॥३१०॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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