SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 287
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वाचालग्रामे नागसेनगृहे भगवतो भिक्षाग्रहणम् कल्पसूत्रे उसके मनमें तृप्ति हुइ आनंद से उसका मन उल्लसित होने लगा वह शीघ्र ही आसन से सचन्दार्थे ऊठा और उठकर पादपीठ से होकर वह उससे नीचे उतरा उतरकर अपने पैरोंसे पादुकाएं ॥२७॥ उतारकर (पगरखियां निकालकर) मुखपर उसने एकशाटिक उत्तरासंग धारण किया वस्त्र धारण करके वह भगवान् के सामने सात आठ पग चला चलकर उसने तीनबार आदक्षिण प्रदक्षिणा की बादमें उसने भगवान् को वंदना की नमस्कार किया पंचांग नमनपूर्वक नमस्कार करके जहां रसोई घर था वहां पर आया आकरके अपने हाथ से नागसेन गाथापति ने उत्कृष्ट भक्ति और बहुमान से भगवान् को विपुल अशनपान खाद्य और स्वाय का दान दूंगा ऐसा विचार कर प्रसन्न चित्त हुआ दान देते समय में आज भगवान् को | अशनादि दे रहा हूं ऐसा सोचकर अधिक प्रसन्न हुआ दान देने के बाद भगवान् को आज 2 में अशनादि दान दिया ऐसा सोच कर प्रसन्न चित्त हुवा तब द्रव्यशुद्ध दायकशुद्ध और ail प्रतिग्राहकशुद्ध इस प्रकार त्रिविध शुद्ध और त्रिकरण (मन, वचन, काय) से शुद्ध आहार ॥२७॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy