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________________ कल्पसूत्रे ।। णियपुत्वभवे कोहपगडीए णियमरणं विण्णाय पच्छायावं करिय हिंसयपगडि विमुंचिय चण्डको शिकस्य सशब्दार्थे संतसहाओ संजाओ] उस से वह पूर्व भव में क्रोध-प्रकृति से अपना मरण जानकर पश्चा भगवदुपरि॥२६॥ त्ताप करके और हिंसक प्रकृति का त्याग करके शांत स्वभाव हो गया [तएणं से सप्पे विषप्रयोगः तीसं भत्ताइं अणसणाए छेदित्ता सुहेण झाणेण कालमासे कालं किच्चा] तत् पश्चात् वह ! चण्डको शिकप्रति सर्प अनशन से तीस भक्त छेदन करके अर्थात् पंद्रह दिन का अनशन करके शुभध्यान वोधश्च || के साथ काल मास में काल करके [उक्कोसओ अटारससागरोवमदिइए सहस्सारा{! भिहे अट्टमे देवलोए उनकोसटिइओ एगावयारो देवो जाओ] अठारह सागरोपम की उत्कृष्ट स्थितिबाले सहस्रार नामक आठवे देवलोक में उत्कृष्ट स्थितिवाला एकावतारी : । देवहुआ [महाविदेहे सो सिन्झिस्सइ] वह महाविदेह क्षेत्र में सिद्धि प्राप्त करेगा ॥४८॥ भावार्थ-वार भगवान् के कायोत्सर्ग में स्थित हो जाने के पश्चात् दृष्टिविष ... चंडकौशिक नामक सर्प क्रोध से युक्त होकर अपने बिल से बाहर निकला । बाहर ॥२६॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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