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________________ पष्ठक्षपण वर्णनम् कल्पसूत्रे [पडिलेहिज्ज गोच्छगं] गोच्छा का प्रतिलेखन किया [गोच्छगलइयंगुलिओ] गोच्छक ! पारणार्थ सबन्दाथै । को अंगुलियों से ग्रहण करके [वत्थाई पडिलेहए] वस्त्र को ग्रहण किया [रयहरणं पडि बहुल॥२२०॥ लेहित्ता] रजोहरण का प्रतिलेखन करके [पात्तगं पडिलेहए] पात्रा का प्रतिलेखन किया। ब्राह्मणगृहे गमनादि [कहियमवि] कहा भी है__[पच्चत्थं च लोगस्स] लोगों में प्रतीति-विश्वास के लिये [नाणाविहविगप्पणं] वर्षाकल्प आदि समय में संयम पालने के लिये [जत्तत्थं गहणत्थं च] केवलज्ञानादि ग्रहण के लिये एवं भव्य जीवों को श्रुतज्ञान का लाभ देने के लिये [लोगे लिंगपओयणं] लोक में साधुचिन्ह-धर्मचिन्ह की आवश्यकता हैं [तएणं समणे भगवं महावीरे कुम्मारगामाओ निग्गच्छइ] उसके बाद श्रमण भगवान् महावीर कुमारग्राम से निकलते हैं [निग्गच्छित्ता पुवाणुपुर्दिवं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे] निकलकर पूर्ववर्ती तीर्थंकरों की परम्परा के अनुसार विचरण करते हुए तथा एक ग्राम से दूसरे ग्राम [सुहं सुहेणं विहरमाणेणं] ॥२२॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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