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________________ कल्पसूत्रे पसन्दार्थे ॥२१॥ सकं देविंद देवरायं पडिसेहीअ] यह देखकर दया के सागर भगवान ने शक देवेन्द्र | भगवतो. गोपकृतो. देवराज को रोक दिया [तए णं से सक्के देविंदे देवराया पहुं एवं वयासी] तब वह शक देवेन्द्र देवराज भगवान् से इस प्रकार बोले-[पहू ! देवाणुप्पियाणं अग्गे वि बहवे वर्णनम् दुस्सहा परिसहोवसग्गा आवडिस्संति] भगवन् ! आप देवानुप्रिय को आगे भी बहुत से ॥ दुस्सह परीषह और उपसर्ग आएंगे [अओऽहं ते निवारिउं तुम्हाणं अंतिए चिट्ठामि] अतः उसका निवारण करने के लिये मैं आप के पास रहता हूँ। [सकिंदस्स तं वयणं सोच्चा भगवया कहियं] शकेन्द्र का कथन सुनकर भगवान् बोले [सका ! जे य अईया!! जे य अणागया, जे य पडुप्पण्णा तित्थयरा ते सव्वेवि सएण उटाण-कम्म-बल वीरिय पुरिसक्कारपरक्कमेणं कम्माइं खति असहेज्जा चेव विहरंति] हे शक्र! जो तीर्थंकर ! अतीत काल में हुए है, भविष्यत् में होंगे और वर्तमान में है वे सभी अपने उत्थान .. कर्म, बल, वीर्य, पुरुषाकार और पराक्रम से कर्मों का क्षय करते हैं असहाय ही विचरते . ॥२१०॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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