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________________ कल्पसूत्रे जलमिव हरिसोल्लासो सोसिउ मुवाकमीअ] जैसे ग्रिष्म के समय में सरोवरों का जल प्रभुविरहे सन्दार्थे नन्दिसूखने लगता है, उसी प्रकार उन का हर्ष सूखने लगा [वारिविरहेण पफुल्लं कमल॥१८॥ मल वर्धनादीनों कुलं विव सव्वेसि हिययदुस्सहेण पहुविरहेण मलिणं जायं] जैसे पानी के विना विकसित 1 विलाप वर्णनम् कमल मुरझा जाता है उसी प्रकार सब का हृदय दुस्सह प्रभु विरह से मुरझाने लगा [तमुज्जीविउं पवत्तो सोंडीरो सीयलमंदसुगंधि समिरोवि भुयंगमसासायइ] उसे ताजा करने केलिये प्रवृत्त हुआ चतुर पवन शीतलमंद और सुगन्धित होने पर भी सांप के S श्वास के समान जहरीला प्रतीत होने लगा [पुव्वं जाओ तदिक्खमहोच्छवनंदणवणे ! तदरिसणकप्पतरुतले इट्टसिद्धीए आणंदलहरिओ जायाओ] पहले भगवान् वर्धमान स्वामी के दीक्षा ग्रहण के निमित्त हुए उत्सवरूपी नन्दनवन में श्री वर्द्धमान स्वामी के दर्शनरूप कल्पवृक्ष के मूल में इष्टसिद्धि से आनन्द की जो लहरे उत्पन्न हुइ थीं [ताओ सव्वाओ पहुविरहवडवानलम्मि पणटाओ] वह सब प्रभु के विरहरूप वडवानल ॥१८६॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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