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________________ ल्पसूत्रे बन्दायें ७६ [पंडिच्छइ ] दिया [तओ साहुवेसं गहिय] तत्पश्चात् भगवान के साधुवेष ग्रहण करने से एक अंतमुहूर्त्तपर्यन्त तीनों लोकों में प्रकाश हुवा तत्पश्चात् भगवान श्रीने [ सिद्धाणं णमो - कारं करेइ]. श्रीसिद्ध भगवान् को नमस्कार किया [करिता सव्वं मे अकरणिज्जं पावकम्मं free] नमस्कार करके 'मेरे लिए समस्त पापकर्म अकरणीय है' इस प्रकार कह कर '[सीहवित्तीए सामाइयं चरितं पडिवज्जइ] सिंहवृत्ति से सामायिक चारित्र अंगीकार किया [तं समयं च णं देवासुरपरिसा मणुयपरिसा य आलेक्खचित्तभूयाविव चिट्ठइ] उस समय देवों की परिषद्, और मनुष्यों की परिषद् चित्रलिखित के समान रह गई [तरणं से सक्के देविंदे देवराया जंतुवायपडिए समणस्स महावीरस्स केसाई वयरामएणं थालेणं पच्छि] तब वह शक देवेन्द्र देवराज अचानक आकर श्रमण भगवान महावीर के केशों को वज्ररत्नमय थाल में लिये और [जं समयं च णं भयवं सामाइयं चरितं पडि वजइ तं समयं च णं भगवओ बद्धमाणस्स चउत्थे मणपज्जवनाणे समुप्पण्णे ] जि भगवतः सर्वालङ्कार त्यागपूर्वक सामायिक चारित्रप्रतिपत्तिः ॥१७६॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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