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________________ कल्प । शक्ति से शरीर को सात-आठ ताडवृक्षों जितना लम्बा ऊँचा बनाकर [पहुं जिघंसु भगवतो. वाल्यावसमन्दार्थे । }} उवरि आगासतलाओ अहो पाडिउ मारभीअ] भगवान् को मारने की इच्छा से उसने स्थावर्णन ॥१२२॥ । प्रभु को उँचे आकाशतल से नीचे गिराना आरंभ किया। [तं दवण तक्खणमेव पगिइ भीरूणो सिसुणो सिग्धं सिग्धं पलाइउमारद्धा] यह दृश्य देखकर स्वभाव से डरपोक बालक उसी समय जल्दी-जल्दी इधर उधर भागने लगे [चाउरी चंचू-पहू ओहिणा । देवकयं उवद्दवं मुणिय एवं चिंतेइ] अपनी चतुराई के लिए प्रसिद्ध प्रभु ने अवधिज्ञान से इस उपद्रव को देवकृत जानकर इस प्रकार विचार किया-[जं एए बाला ममं पेमालणो अम्मापिउणो कहिस्संति,] ये बालक मेरे स्नेहशील मातापिता से कहेंगे अर्थात् देवकृत इस संकट की बात उन्हें बतायेंगे [तेणं मं उवदवसंकुलं विण्णाय मा खेय- । खिन्ना हवंतु-त्ति] वे उसे सुनकर माता पिता मुझे संकट ग्रस्त जानकर चिन्तायुक्त न ! बने, इस प्रकार विचार करके [सिग्धं तं दुरासयं दिवि सयं नमइउं] शीघ्र ही उस ॥१२२१
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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