SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ :. : विपाकश्रुते अझयणस्स' प्रथमस्य खलु हे भदन्त ! अध्ययनस्य 'दुहविनागाणं' दुःखविपाकानां-दुःखविपाकश्रुतस्कन्धस्य 'समणेणं जाव' श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत्-सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं 'संपत्तेणं' संप्राप्तेन-गतेन 'के अढे पण्णत्ते ?' कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? ।। _ 'तए णं' ततः खलु = श्रीजम्बूस्वामिनः प्रश्नकरणानन्तरं खल्लु 'सुहम्मे अणगारे' श्रीसुधर्मा स्वामी अनगारः श्रीजम्बूस्वामिनमनगारम्, "एवं वयासी' एवमवादी-एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादी कथयति स्म । 'एवं खलु जंबू !'-एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण खलु हे जम्बूः ! ' तेणं कालेणं तेणं समएणं' तस्मिन् काले तस्मिन् समये 'मियागामे णामं णयरे' मृगाग्रामो नामकं नगरम् ‘होत्था' आसीत् । 'वण्णओ' वर्णकः-वर्णनं, स चौपविवागाणं' दुःखविपाकके 'पढमस्स णं अज्झयणस्स' प्रथम मृगापुत्रनामक अध्ययन का 'समणेणं जाव संपत्तेणं' आदिकर आदि विशेषणों से विशिष्ट उन श्रमण भगवान महावीरने 'के अटे पण्णत्ते' क्या अर्थ कहा है ? । 'तए णं' श्री जंबूस्वामी के इस प्रकार के प्रश्न करने के पश्चात् 'सुहम्मे अणगारे' वे सुधर्मा स्वामीने 'जंबूअणगारं' उन जंबू स्वामी के प्रति ‘एवं वयासी' इस प्रकार से कहा-कि 'जंबू ! एवं खलु' हे जम्बू ! तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है, सुनो- 'तेणं कालेणं तेणं समएणं मियागामे णयरे होत्था' उस अवसर्पिणी कालके चतुर्थ आरे में मृगाग्राम नाम का एक नगर था। 'वण्णओ' औपपातिक सूत्र में जिस प्रकार से चंपानगरी का वर्णन किया गया है, टीक इसी प्रकार से इस नगर का भी वर्णन समझना चाहिये(दहविवागाणं) विपना (पढमस्स अज्झयणस्स) प्रथम भृगापुत्र नमना अध्ययनk (समणेणं जाव संपत्तेणं) मा४ि२ मा विशेषथा विशिष्ट त श्रम भगवान भावी२ (के अढे पण्णत्ते ?) शुभ मुह्यो छ १. (तए णं) श्री भूस्वाभीमे मा प्रभारी प्रश्न त्यार पछी (सुहम्मे अणगारे) ते सुधर्मा स्वाभीमे म्भू भागार प्रति (एवं वयासी) प्रमाणे ह्यु :-(जंबू! एवं खलु) न्यू! तमा। प्रश्न उत्त२ मा प्रभारी छ, समजा. (तेणं कालेणं तेणं समएणं मियागामे णयरे होत्था) ते अक्सपिए न योथा मारामां भृ॥श्राम नामर्नु मे नगर तु. (वण्णी ) औषपाति: सूत्रमा २ प्रभारी पानगरीनु વર્ણન કરેલું છે, તે પ્રમાણે આ નગરીનું વર્ણન સમજી લેવું જોઈએ. ચંપાનગરી જે. પ્રમાણે અદ્દભુત શંભા આદિ ગુણોથી વિશિષ્ટ છે, તે પ્રમાણે આ નગર પણ પોતાનાં
SR No.009356
Book TitleVipaksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages825
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size58 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy