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________________ - विपाकचन्द्रिका टीका, श्रु० १; अ० १, पूर्णभद्रवर्णनम्, .३५ दिग्भागे ईशानकोणे, 'पुण्णभद्दे' पूर्णभद्रं = पूर्णभद्रनामकं, 'चेइए' चैत्यम् उधानम्, 'होत्था' आसीत्। 'वण्णओ' वर्णका वर्णनम्, स च-चिराइए, पुव्वपुरिसपण्णत्ते' इत्यादिरौपपातिकसूत्रे द्रष्टव्यः; तत्र-' चिराइए' चिरादिक= चिरकालिकम्, अत एव-'पुचपुरिसपण्णत्ते' पूर्वपुरुषप्रज्ञप्तं-पूर्वपुरुषैः प्राचीन- .. पुरुषैः प्रज्ञप्त-कथितम्, इदं बहुकालतः प्रसिद्धमित्यर्थः । 'तेणं कालेणं तेणं समएणं' तस्मिन् काले तस्मिन् समये 'समणस्स भगवओ महावीरस्स' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'अंतेवासी' अन्तेवासी = शिष्यः 'अज्जसुहम्मे णामं अणगारे' आर्यसुधर्मा नामानगारो विहरतीत्यन्वयः। स कीदृशः? इत्याह-'जाइसंपण्णे' जातिसम्पन्न चेइए होत्था) उस चंपा नगरी के बाह्य ईशान कोणमें एक पूर्णभद्र नामका बहुत प्राचीन उद्यान था। (वण्णओ) इसका भी वर्णन औपपातिक सूत्र में "चिराइए पुचपुरिसपण्णत्ते" इत्यादि पद द्वारा किया गया है। यह उद्यान चिरकाल का बना हुआ है। पूर्वपुरुषों द्वारा इस उद्यान के बारे में अनुश्रुति चली आ रही है, अर्थात् यह उद्यान बहुत कालसे प्रसिद्ध है। . (तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज्जमुहम्मे णाम अणगारे जाइसंपण्णे कुलसंपण्णे, वण्णओ, चउद्दसपुव्वी चउनाणोवगए पंचहि अणगारसएहिं सद्धिं संपरिखुडे पुव्वाणुपुचि चरमाणे जाव जेणेव पुण्णभद्द चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, अहापडिरूवं जाव विहरइ) एक समय की बात है कि-भगवान महावीर के शिष्य श्रीआर्य-सुधर्मा स्वामी अनगार उसी अवसर्पिणी काल के उसी चौथे .. आरे में तीर्थंकरों की परंपरा से विहार करते हुए उस उद्यान में अपने ५०० शिष्यों सहित पधारे। वह कैसे थे ? सो कहते हैं-जातिसंपन्न होत्था) मा पानगशनी महा२ शानभा से पूर्ण न नामनी म०४ प्राचीन भगाया तो. (वण्णओ) तेनुं वर्णन पार मोपपातिसूत्रमा 'चिराइए पुचपुरिसपण्णत्ते' त्या पहो 43 यु छ. २मा धान गहु eial सभयनो मन छे. (तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज्जमुहम्मे णामं अणगारे जाइसंपण्णे कुलसंपण्णे, वण्णओ, चउसपुव्वी चउनाणोवगए पंचर्हि अणगारसएहिं सद्धिं संपरिवुडे पुव्वाणुपुल्विं चरमाणे जाव जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं जाव विहरइ ) मे भयनी बात छ ? ભગવાન મહાવીરના શિષ્ય શ્રી આર્યસુધર્મા સ્વામી તે અવસર્પિણી કાળના તે ગ્રોથા આરામાં તીર્થકરાની પરંપરાથી વિહાર કરતાં તે ઉદ્યાન-બગીચામાં પોતાના પ૦૦ શિષ્ય સહિત
SR No.009356
Book TitleVipaksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages825
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size58 MB
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