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________________ "विपाकचन्द्रिका टीका, श्रु० १, अ० ९, देवदत्तावर्णनम् ६८५ कृत्वा 'इमीसे रयणप्यभाए पुढवीए' अस्यां रत्नप्रभार्या पृथिव्याम् 'उक्को सेणं सागरोवमद्विईएस णेरइएस' उत्कृष्टं सागरोपमस्थितिकेषु नैरयिकेषु 'णेरइयत्ताए' नैरयिकतया 'उववज्जिहि ' उत्पत्स्यते । 'संसारो तहेव ' संसारस्तथैव भवाद भवान्तरभ्रमणं प्रथमाध्ययनवद् विज्ञेयम् । 'तओं' ततः पृथिवीकायात् 'अणंतर' अनन्तरम् 'उन्बद्वित्ता' उद्धृत्य निस्सृत्य 'गंगपुरे णयरे' गङ्गपुरे नगरे 'हंसताए पचायाहि ' हंसतया प्रत्यायास्यति हंसो भविष्यतीत्यर्थः । ' से णं' स खलु देवदत्ताजीवः 'तत्थ' तत्र हंसभवे 'साउणिएहिं' शाकुनिकैः = पक्षिघातकैः 'वधिए समाणे' वधितः = मारितः सन् ' तत्थेव गंगपुरे णयरे' तत्रैव गङ्गपुरे नगरे 'सेकुलसि' श्रेष्ठले 'पुत्तताए उववज्जिहिर' पुत्रतया उत्पत्स्यते । 'बोहिं० ' तत्र वोधिं प्राप्स्यति । ततः 'सोहम्मे० ' सौधर्मे = सौधर्मकल्पे देवो भविष्यति । ततः ' महाविदेहे ' महाविदेहे वर्षे 'सिज्ज्ञिहि ५' सेत्स्यति || 'णिक्खेवो' मरण के अवसर में मर कर 'इमी से रयणप्पभाए पुढवीए सागरोवमहिइएस' इसी रत्नप्रभा पृथ्वी के१ सागर की स्थितिवाले 'नेरइएस ' नरंक में 'रइयत्ताए' नारकी के रूप में 'उववजिहि ' उत्पन्न होगी । इसका भव से भवान्तर में भ्रमण प्रथम अध्ययन में कहे हुए मृगापुत्र के अनुसार समझ लेना चाहिये । 'तओ अनंतरं उन्बट्टित्ता' इसके अनंतर वहाँ से - पृथिवीकाय से निकल कर 'गंगपुरे णयरे' गंगपुर नगर में 'हंसत्ताए पच्चायाहि' यह हंसरूप से उत्पन्न होगी । 'से णं तत्थ साउणिएहिं वधिए समाणे तत्थेव गंगपुरे पयरे सेहिकुलंसि पुत्तत्ताए उववज्जिहि' वहां यह शिकारी द्वारा मारी जाकर पश्चात् उसी गंगपुर नगर में किसी सेठ के घर पर पुत्ररूप से उत्पन्न होगी 'बोडिं० सोहम्मे ० महा विदेहे सिज्झिहि' वहां यह बांधि को पायगी, संयम लेकर मर 'इमी से रयणप्पभाएं पुढवीए सागरोपमइिएस' से रत्नप्रभा पृथिवीना खेड सागरनी स्थितिवाणा 'नेरइएस' नरम्भां ' णेरइयत्ताए ' नारना' ३५भी 'उवत्रज्जिहिइ' उत्पन्नथंशे. तेनुं मे लवथी भील भवभ-लवान्तरभी भ्रमण ते प्रथम अध्ययनभां !šवामां आवेला भृगापुत्रनी प्रमाणे नगी' सेवु 'तओ अनंतरं उच्चट्टित्ता' ते पछी त्यांथा पृथिवीभयथी नाउलीने 'गंगपुरे णयरे' गगपुर नगरभां 'हंसत्ताए पच्चायाहि ' ते उस ३५थी उत्पन्न थशे. ' से णं तत्थ साउणिएहिं वधि समाणे तत्थेव गंगपुरे णयरे सेहिकुल सि उवज्जिहि ' त्यां ते शिरी દ્વારા માર્યા જશે, પછી તે ગ ંગપુર નગરમાં કોઇ એક શેઠના ઘેર પુત્ર રૂપથી ઉત્પન્ન थथे. 'वेहिं० सोहम्मे० महाविदेहे सिज्जिहिइ' त्यां आगण ते मोधिरत्न याभथे, •
SR No.009356
Book TitleVipaksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages825
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size58 MB
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