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________________ ६६० विपाकश्रुते जुवरणो' पुष्पनन्दिने युवराजाय, 'भण देवाणुप्पिया' भण-कथय हे देवानुभिय ! 'कि दलयामो सुक्कं' किं ददामः शुल्कम् उपहारम् ? । 'तए णं' ततः खलु स दत्तः 'अभितरद्वाणिज्जे पुरिसे एवं वयासी' आभ्यन्तरस्थानीयान् पुरुषान् एवमवादीत्-‘एयं चेव देवाणुप्पिया' एतदेव हे देवानुप्रियाः ! मम 'मुक्क' शुल्कं 'जण्ण' यत्खलु 'वेसमणदत्ते राया' वैश्रवणदत्तो राजा 'मम' मां 'दारियाणिमित्तेणं' दारिकानिमित्तेन 'अणुगिण्हई अनुगृह्णाति अनुग्रहं करोति, इति कथयित्वा 'ते अभितरहाणिज्जे पुरिसे' तान् आभ्यन्तरस्थानीयान् पुरुषान् ‘विउलेणं विपुलेन 'पुप्फवत्थगंधमल्लालंकारेणं' पुष्पवस्त्रगन्धमाल्यालंकारेण 'सक्कारेइ आप अपनी पुत्री को हमारे युवराज पुष्पनंदी के लिये दे दीजिये। तथा साथ में यह भी 'भण' कह दीजिए कि 'देवाणुप्पिया' हे देवानुप्रिय ! 'किं दलयामो सुक्कं' इसके मूल्यस्वरूप में हमें क्या देना पडेगा। 'तए णं राजपुरुषों की इस प्रकार से बात सुनकर 'से दत्ते ते अमितरहाणिज्जे पुरिसे एवं वयासी' उस दत्त सार्थवाह ने उन राजपुरुषों से इस प्रकार कहा-'एयं चेव देवाणुप्पिया सम सुक्कं जण्णं वेसमणदत्ते राया ममं दारिया निमित्तेणं अणुगिण्हइ' हे देवानुप्रिय ! मेरे लिये यही मूल्य है जो वे वैश्रवणदत्त राजा हमारी पुत्री को निमित्त कर हमारे ऊपर अनुग्रह कर रहे हैं अर्थात् यही उनकी हमारे ऊपर बड़ी भारी कृपा है जो हमारी पुत्री के साथ अपने युवराज का संबंध चाह रहे है। इससे अधिक इस संबंध का मूल्य क्या हो सकता है ! 'ते अभितरद्वाणिज्जे पुरिसे विरलेणं पुप्फवत्थगंधमल्लालंकारेणं सक्कारेइ' इस प्रकार कह कर उस दत्त सार्थवाहने उन राजपुरुषों का विपुल पुष्प, मापनी पुत्री समा। युवरा४ ०५नही भाटे माप! तथा साथे मे पण 'भण' ही मापा 'देवाणुप्पिया' देवानुप्रिय ! 'किं दलयामो सुक' ते न्याना मुख्य तरी अभारे शुमा५ ५४0. 'तए णं' पुरुषांनी या प्रमाणे पात सामजीन ' से दत्ते ते अग्मितरट्टाणिज्जे पुरिसे एवं वयासी' ते इत्तसार्थ पाडे ते पुरुषाने मा प्रमाणे यु-' एवं चेव देवाणुप्पिया ममं सुक्कं जण्णं वेसमणदत्तेराया ममं दारियानिमित्तेणं अणुगिण्हइ वानुप्रिय! भा। માટે એજ મૂલ્ય-શુક છે કે-વૈશ્રવણદત્ત રાજા અમારી પુત્રીને નિમિત્ત રાખી અમારા પર અનુગ્રહ કરી રહ્યા છે, અર્થાત તેમની અમારા પર મોટી કૃપા છે. જે અમારી પુત્રી સાથે પોતાના યુવરાજને સંબંધ કરવા ચાહે છે આથી વિશેષ આ સંબંધનું મૂલ્ય શું श? ते अभितरहाणिज्जे पुरिसे विउलेणं पुप्फवत्थगंधमल्लालंकारेणं सक्कारेइ ' अरे हीन ते हत्तसार्थ वा ते सापुरुषांना ४ ०५ १
SR No.009356
Book TitleVipaksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages825
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size58 MB
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