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________________ विपाकचन्द्रिका टोका, श्रु० १, अ० ९, देवदत्तावर्णनम् सित्ता' समाश्वास्य 'तओ' ततः तस्मात्स्थानात् कोपगृहात् 'पडिनिक्खमइ' प्रतिनिष्क्रामति-निस्सरति, 'पडिनिक्खमित्ता' प्रतिनिष्क्रम्य निस्सृत्य 'कोडुवियपुरिसे' कौटुम्बिक पुरुषान् स्वनिदेशवर्तिनो जनान् ‘सहावेइ' शब्दयति-आहयति, 'सद्दावित्ता' शब्दयित्वा-आहूय ‘एवं वयासी' एवमवादीत-'गच्छह णं' गच्छत खलु 'तुम्भे देवाणुप्पिया' यूयं हे देवानुप्रियाः ! 'सुपइट्ठस्स नयरस्स' सुप्रतिष्ठस्य नगरस्य 'वहिया' बहिः बहिर्मार्गे 'पच्चत्थिमे दिसीभाए' पश्चिमायां दिग्भागे 'एगं महं' एकां महतीं 'कूडागारसालं' कूटाकारशालां-पर्वतशिखरतुल्यां शालां 'करेह' कुरुत-कारयतेत्यर्थः, कीदृशीम् ! इत्याह-अणेगखंभसयनिविट्ठ' अनेकस्तम्भशतसंनिविष्टां-बहुशतस्तम्भयुक्तां 'जाव' यावत् 'पासाईयं४' प्रासादीयां दर्शकजनमनःप्रसादजनिकां 'दरिसणिज्नं' दर्शनीयां दर्शनयोग्याम् 'अभिरुवं' अभिरूपाम्-अभि प्रतिक्षणं नवं नवमिव रूपं यस्याः सा अभिरूपा ताम्, मनोज्ञमित मधुर सश्रीक वचनों द्वारा उसे आश्वासन प्रदान किया । 'समासासित्ता तओ पडिणिक्खमई' आश्वासन देकर फिर वह वहां से चला आया । 'पडिणिक्खमित्ता कोडंवियपुरिसे सदावेई' अपने स्थान पर वापिस आते ही उसने नोकरजनों को बुलाया सदावित्ता एवं व्यासी' और बुलाकर इस प्रकार कहा कि 'गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया' देवानुप्रिय ! तुम लोग यहां से जाओ और 'मुपइट्ठस्स नयरस्स बहिया पञ्चत्थिमे दिसीभाए एगंमहं कूडागारसालं करेह' सुप्रतिष्ठ नगरके बाहर पश्चिम दिशाकी तरफ एक भारी कूट आकारवाली शाला जो पर्वत के शिखर के तुल्य हो, 'अणेगखंभसयसम्निविढे जाव पासाईय' तथा जिसमें सैकड़ों खंभे लगे हुए हों, जो दर्शकजनों के चित्त को मुदित करने वाली हो, दर्शनीय हो, जिसका रूप क्षण क्षण में देखने वालों को अपूर्व प्रतीत होता हो પ્રિય અને હિંમત ભર્યા વચનો દ્વારા રાજાએ શ્યામા દેવીને આશ્વાસન આપ્યું. 'सप्नासासित्ता तमओ पडिनिक्खमइ' मावासन मापाने पछी ते २० त्यांची यात्या माव्या. 'पडिनिक्वमित्ता काटुंबियपुरिसे सहावेइ ताना स्थान ५२ पाछ। मातi तो नशेने पोतानी पासे मासाव्या 'सद्दारित्ता एवं बयासी' मने मोटापान मा प्रभारी छु 'गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया' पानुप्रिय ! तभे सौ मीथी तो भने 'सुपइठस्स नयरस्स पहिया पच्चत्थिमे दिसीमाए एगं महं कूडागारसालं करेह' सुप्रतिष्४ नाना हार पश्चिम nि तना ભાગમાં એક માટી ભારે છૂટ આકાર વાળી શાળા જે પર્વતના શિખરનાં બરાબર હોય, 'अणेगवंभसयसंनिविद्रं जाव पासाईयं' तथा मां से तल सागेसा डाय અને તે સ્થળ જેનારના ચિત્તને પ્રસન્ન કસ્નારી હોય, જોવા લાયક હય, જેનું રૂપ
SR No.009356
Book TitleVipaksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages825
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size58 MB
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