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________________ विपाकचन्द्रिका टीका श्रु० १, अ० ८, शौर्यदत्तवर्णनम् ६०७ तटं 'गाहिति' गाहन्ते-आनयन्ति । 'कूलं गाहित्ता' ग्राहित्वा-आनीय ‘मच्छखलए' मत्स्यखलान् मत्स्यानां-खलान्-राशीन् 'काति' कुर्वन्ति, करित्ता' कृत्वा 'आयवंसि' आतपे 'दलयंति' ददति । 'अण्णे य' अन्ये च 'से' तस्य शौर्यदत्तस्य 'वहवे पुरिसा दिनभयिभत्तवेयणा' बहवः पुरुषा दत्तभृतिभक्तवेतना: 'आयवतत्तेहिं आतपतप्तैः आतपशुष्कः 'मच्छेहि मत्स्यैः कीदृशैस्तैः १ 'तलिएहि य' तलितैः, 'भज्जिएहि य' भर्जितैः 'सोल्लिएहि य' शौल्यैः शूलपक्वैश्च 'रायमग्गंसि' राजमार्ग वित्ति' वृत्तिम्-जीविकां 'कप्पेमाणा, कल्पमानाः कुर्वन्तो 'विहरंति' विहरन्ति । ' अप्पणावि य णं' आत्मना-स्वयमपि च खलु 'से सोरियदत्ते' स शौर्यदत्तः 'बहुहि' बहुभिः ‘सण्हमच्छेहि य' श्लक्ष्णमत्स्यैः 'जाव "गिण्डित्ता' पकड कर 'एगट्टियाओ भरेंति' उन्हें वे सब नौका में डालते जाते । जब नौका भर जाती, तब वे 'भरित्ता कूलं गाहिति' उस भरी हुई नौका को तीर पर ले आते। 'कूलं गाहित्ता मच्छखलए करेंति' तीर पर ला कर वे सब उन मछलियों का एक ढेर करते 'करित्ता आयसि दलयंति' ढेर करने के बाद वे उन्हें धूप में फैला कर सुखा देते । 'अण्णे य से बहवे पुरिसा दिण्णभइमत्तवेयणा' कुछ पुरुष उसके पास इस बात की भी नौकरी आदि पाते थे जो उन सुकाई गई मछलियों को 'आयवत्तेहिं मच्छेहि तलिएहि य भजिएहि य सोल्लिएहि य' धूपमें सुका हुवा मच्छोको तैल से तलते थे, मुंजते थे और शूलों द्वारा पकाते थे, फिर बाद में उन्हें 'रायमगंसि' राजमार्ग में रख कर बेंचते थे, और इस प्रकार 'वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति' अपनी जीविका चलाते थे । 'अप्पणावि य णं से सोरियदत्ते वहुहि सण्हभरेंति ' तेने पाताना वाम नामत ता ता. न्यारे तेमार्नु ] मरा ॥ त्यारे ते 'भहित्ता कूलं गाहिति' भरेता वहाणने नहीना id & उता, 'कूलं गाहिता मच्छखलए करेंति' is सावाने ते वडामाथी भावीमा पहार दीन दया ४२ता ता. “करित्ता आयवंसि दलयंति' ला शन पछी तन तभा पहाजी शने सूवतो तो, 'अण्णे य से बहवे पुरिसा दिण्णभइभत्तवेयणा' मा पुरुष तनी पासे ये मजा भाटे ५ नारी ४२ता हुता सु) आदी मावीमान 'आयवत्तेहिं मच्छेहि तलिएहि य भज्जिएहि य सोल्लिएहि य' સુકાવેલા માછલાંને તેલમાં તળતા હતા, ભુંજતા હતા, અને શૂલી પર ચઢાવીને પકાવતા ता. पछी तेने 'रायमगंसि' भार्गभाराभान यता उता, मने को प्रमाणे 'वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति' पोतानी मावि यापता उता 'अप्पणावि य गं से सोरियदने बहुहिं सहमच्छेहि य जाव पडागाइपडागेहि य तलिएहि य
SR No.009356
Book TitleVipaksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages825
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size58 MB
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