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________________ ५७२ विपाकश्रुते डाति' उपस्कारयन्ति, 'उवक्खडावित्ता' उपस्कार्य 'बहुहि' बहुभिः 'मित्त जाव' मित्र-यावत्-मित्रज्ञातिस्वजनसम्बन्धिपरिजनमहिलाभिः 'परिवुडाओ' परिवृताः 'तं विउलं असणं' तं विपुलं अशनम् अशनादि चतुर्विधमाहारं 'सुरं च५' मुरां च ५ 'पुप्फ जाव' पुष्पगन्धमाल्यालंकारं 'गहाय' गृहीत्वा 'पाडलिसंड णयरं' पाटलिपण्डं नगरं मझमज्झेणं मध्यमध्येन-मध्यतो भूत्वा 'पडिणिक्खमंति' प्रतिनिष्क्राम्यन्ति, 'पडिणिक्खमित्ता' प्रतिनिष्क्रम्य 'जेणेव पुक्खरिणी' यत्रैव पुष्करिणी 'तेणेव उवागच्छंति' तत्रैवोपागच्छन्ति, 'उवागच्छित्ता पुक्खरिणी' उपागत्य पुष्करिणीम् 'ओगाहेति' अवगाहन्ते, 'ओगाहित्ता' अवगाह्य 'पहाया' स्नाताः 'जाव पायच्छित्ताओ' यावत्-प्रायश्चिताः-कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्ताः 'तं' तत् 'विउलं असणं' विपुलम् अशनं४ अशनादि चतुर्विधमाहारं 'मुरं च५' सुरां च५ 'वहुर्हि' बहुभिः 'मित्तणाइ जाव सद्धिं' मित्रज्ञातियावत् तैयार करवाती हैं ओर ‘उवक्खडावित्ता बहुहिं मित्त-जाव परिवुडाओ' तैयार करवा कर अपने मित्रादि परिजनों की महिलाओं के साथ परिवृत होकर 'तं विउलं असणं४ सुरंच५ पुप्फ जाव गहाय पाडलिसंडं णयरं मज्झंमज्झेणं पडिणिक्खमंति' उस तैयार किये हुए अशन को विविध प्रकार की मदिरा को एवं पुष्प, गन्ध, माल्य, वस्त्र और अलंकार को लेकर पाटलिपंड. नगर के बीचों-बीच होकर जो निकलती हैं। पडिणिक्वमित्ता जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छति' और निकल कर जहां पुष्करिणी है वहां जाती हैं । 'उवागच्छित्ता पुक्रपरिणओगाहेंति जाकर उसमें अवगाहन करती हैं । 'ओगाहित्ता हाया जाव पायच्छित्ताओ तं विउलं असणं४ सुरं च५ बहुहि मित्तणाइ जाव सद्धि आसाएंति४' अवगाहन कर स्नान करती हैं और कौतुक, मंगल एवं प्रायश्चित्त से निवृत्त हो कर उस चतुर्विध आहार को एवं विविध प्रकार की उस मदिरा को मित्त जाव परिवुडाओ' तयार ४सवान पोताना भित्राहि परिनानी सीमानी साथ परिश्त-25ने 'तं विउलं असणं ४ सुरं च ५ पुप्फ जाव गहाय पाडलिसंड णयरं मझमज्झेणं पडिणिक्खमंति' ते तयार ४२सा भराने विविध प्रा२नी भा२। -દારૂ અને પુષ્પ, ગ, માલા, વસ્ત્ર અકારને લઈને પાટલીખડ નગરનાં વચ્ચે વચ્ચે २स्ताथी नाणे छ 'पडिणिक्खमित्ता जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छति' भने नाseी ल्या पुस्तरि छे त्यांनय छ 'उवागच्छित्ता पुक्वरिणि ओगाति' ४४२ मा साउन २ छे (स्नान ४२ छे-उमड़ी भारे छ 'ओगाहिता पहाया जाव पायच्छित्ताओ तं विउलं असणं४ सुरंच ५ बहुदि मित्तणाइ जाव सद्धि आसाएति४' मी भारी स्नान ४२ अने तु४, मग मने प्रायश्चित्तथी निवृत्त यई
SR No.009356
Book TitleVipaksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages825
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size58 MB
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