SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 583
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५५३ विपाकचन्द्रिका टीका, श्रु० १, अ० ७, उदुम्बरदत्तवर्णनम् दिशति । 'अप्पेगइयाणं' अप्ये केषां वट्टग-लावग-कवोय-कुक्कुडमयूरमंसाई वर्तक-लावक-कपोत-कुक्कुट-मयूरमांसानि खेचरमांसानि उपदिशति, तत्र 'वनका' 'वटेर' इति प्रसिद्धः पक्षिविशेषः, 'लावग' लावकः='लावा' इति प्रसिद्धः पक्षिविशेषः। 'अन्नेसिं च बहूणं' अन्येषां च बहूनां 'जलयर-थलयर-खहयरमाईणं' जलचर-स्थलचर-खेचरादीनां 'मसाइ उपदेसेइ मांसानि उपदिशति । 'अप्पणावि य णं से' आत्मनापि च खलु सः स्वयमपि सः 'धण्णंतरी वेज्जे' धन्वन्तरिर्वैद्यः 'तेहिं' तैः पूक्तिः 'मच्छमंसेहि य जाव' मत्स्यमासैः यावत्-यावच्छब्देन-पूर्वकथितैः सर्वविधैासः 'अण्णेहि य बहुर्हि' अन्यैश्च बहुभिः 'जलयरथलयर-खहयरमंसाई' जलचर-स्थलचर-खेचरमांसानि 'सोल्लिएहि य' शौल्यैः= अग्निपक्वैः, 'तलिएहि य तलितैः ‘भज्जिएहि य' भर्जितैः कटादिकादौ शुष्कखाओ, 'अप्पेगइयाणं' और किन्हीं से कहा करता कि तुम 'बट्टकलावक-कवोय-कुकुड-मयुर-मंसाई' बटेर का, तुम लावा का, तुम कबूतर का, तुम मुर्गे का, और तुम मयूर का मांस खाओ। 'अन्नेसिं च बहूणं जलयर-थलयर-खहयरमाईणं मंसाइ उवदेसेइ' किन्हीं से ऐसा कहता रहता था कि तुम इन बहुत से जलचर जीवों का, तुम थलचर जीवों का, तुम खेचर जीवों का मांस खाओ। दूसरों को ही मांस खाने का यह उपदेश देकर शांत रहता हो सो बात नहीं है किन्तु 'अप्पणावि य णं से धणंतरी वेज्जे' स्वयं भी वह धन्वंतरी वैद्य 'तेहिं बहहिं मच्छमंसेहि य जाव मयूरमंसेहि य अन्नेहि य बहूहि जलयर--थलयर-खयरमंसेहि य' उन मछली आदि से लेकर मयूर तक के समस्त जीवों के मांस के साथ तथा जलचर थलचर एवं खेचर आदि तिर्यञ्चों के मांस के साथ • 'सोल्लिएहि य तलिएहि य भज्जिएहि य सुरं च आसाएमाणे विसाएमाणे३ तमे 'वट्टक लावक-कवोय-कुक्कुड-मयूरमंसाई' पतनु, सार्नु, ४मुतनु, भु२गानु भने भानु मांस मास।. 'अन्नेसिं च बहूणं जलयर-थलयर-खहयरमाईर्ण मसाइ उवदेसेई ने मेवी रीते ४डते. तो तमे घji a यर જીવેના–થલચર જીવેનાં અને ખેચર જીનાં માંસ ખાઓ, બીજાને જ માંસ ખાવાનો सतन पटेश मापान शांत रडतो नाड, परंतु 'अप्पणावि य णं से धणंतरी वेज्जे' पात पाय धन्वत वैध 'तेहिं वहूहि मच्छमंसेहिं य जाव मयूरमंसेहि य अन्नेहिं य बहूहिं जलयर-थलयर-खहयरमंसेहिं य ते भक्षी माथी बने, મેર સુધીનાતમામ જીવોના માંસની સાથે જલચર-થલચર અને ખેચર આદિ તિયચીનાં भांसना साथे 'सोल्लिएहि य तलिएहि य भज्जिएहि य मुरं च ५ आसाएमाणे
SR No.009356
Book TitleVipaksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages825
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size58 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy