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________________ ५१६ "विपाकश्रुते सिरीभणणं' एकदा राजा तां पश्यति पृच्छति च । सा सर्व कथयति । 'तए णं से सिरिदामे राया तीसे बन्धुसिरीए देवीए तं दोहलं केणवि उवायेणं' ततः खलु स श्रीदामो राजा तस्या बन्धुश्रियो दोहदं केनाप्युपायेन अलक्षिततया स्वहृदयमांसस्थाने मांससदृशान्यवस्तुविशेषप्रदानरूपेण 'विणेई' विनर,तिदोहदं पूरयति । 'तए णं सा बंधुसिरी देवी संपुण्ण दोहला५ तं गभं' ततः खलु सा बन्धुश्रीदेवी सम्पूर्णदोहदा ५ यावत् तं गर्भ 'सुहंसुहेणं' सुखसुखेन= सुखपूर्वकं 'परिवहइ' परिवहति धारयति स्म । 'तए णं सा' ततः खलु सा 'वन्धुसिरी देवी' बन्धुश्रीः देवी 'नवण्हं मासाणं' नवसु मासेषु 'बहुपडिपुण्णाणं' ग्रस्त शरीर वाली और हताश होती हुई 'झियाइ आतं ध्यान करने लगी। रायपुच्छा बंधुसिरीभणणं' ऐसी स्थिति में बैठी हुई उस बंधुश्री को एक समय राजा ने देखा और इस परिस्थिति का कारण पूछा। उस गंधुश्री ने अपना सब वृत्तांत राजा को कह सुनाया 'तए णं से सिरिदामे राया' तदनन्तर उस श्रीदाम राजा ने 'तीसे बंधुसिरीए देवीए दोहलं' उस बन्धुश्री देवी के उस दोहद को 'केणवि उवाएण' किसी एक उपाय से अर्थात् जिससे वह नहीं समझ सके इस प्रकार अपने हृदय मांस के स्थान पर मांस के सदृश अन्य वस्तु को देकर 'विणेई' पूरा किया । 'तए णं सा बंधुसिरी देवी' फिर वह बंधुश्री देवी ऐसा करने से 'संपुण्ण दोहला ५' दोहले के संपूर्ण होने पर, संमानित होने पर किसी वस्तु की अभिलाषा से रहित होकर 'तं गम्भ' उस गर्भ को 'सुहं सुहेणं' सुखपूर्वक 'परिवहई' धारण करने लगी। 'तए णं सा शाट गस्त शरीवाणी मने ताश मनाने 'झियाइ' भात ध्यान ४२१. सी. 'रायपुच्छा वधुसिरीभणणं' भावी स्थितिमा मेडी ते मधुश्रीन मे समय રાજાએ જોઈ અને તે પરિસ્થિતિ થવાનું કારણ પૂછયું, ત્યારે તે બંધુશ્રીએ પિતાને तमाम वृत्तान्त ने ही समाव्यो तए णं से सिरिदामे राया पछी श्रीहास IAY, 'तीसे बंधुसिरीए देवीए दोहलं ' ते मधुश्री वीना ते होडसाने (मनोरथन) 'केणवि उवाएणं' ५५ मे पायथा अर्थात् रथी ते સમજી શકે નહિ તેવી રીતે પિતાના હૃદયના માંસની જગ્યાએ માંસના જેવી જ मी परतु मापान ‘विणेइ पूरी ज्यो. 'तए णं सा बंधसिरी देवी' पछी ते मधुश्री हेवी में प्रभारी ४२वाथी 'संपुण्णदाहला ५' होतो पूर्ण थतां सभानिन यता ते पY परतुनी अमिताप! २ नलि. 'तं गभं' ते गमन . .९ 'सुमपूर्व 'परिवहइ ' धारण ४२१all. 'तए णं सा बंधुसिरी
SR No.009356
Book TitleVipaksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages825
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size58 MB
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