SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 526
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४९४ विपाकश्रुते 'आसमुत्तभरियाओ' अश्वमूत्रभृत्ताः, 'अप्पेगइयाओ' अप्येककाः 'हत्थिंमुत्तभरियाओ' हस्तिमूत्रभृताः, 'अप्पेगइयाओ' अप्येककाः 'उट्टमुनभरियाओ' उष्ट्रमूत्रभृताः 'अप्पेगइयाओ' अप्येककाः 'गोमुत्तभरियाओ' गोमूत्रभृताः 'अप्पेगइयाओ' अप्येककाः 'एलयमुत्तरियाओ' एडकमूत्रभृताः मेषमूत्रभृताः 'अप्पेगइयाओ' अप्येककाः ‘महिसमुत्तभरियाओं' महिषमूत्रभृताः 'बहुपडिपुण्णाओं'. बहुमतिपूर्णाः आमुखं संभृताः 'चिटंति' तिष्ठन्ति । 'तस्स णं दुजोहणस्स चारगपालगस्स' तस्य खलु दुर्योधनस्य चारकपालकस्य 'वहवे' वहवः 'हत्थंदुयाण य' हस्तान्दुकानां-हस्तबन्धनविशेषाणां 'हथकडी' इतिपसिद्धानां 'पायंदुयाण य' पादान्दुकानां पादबन्धनश्रृङ्खलानां 'हडीण य' हडीनां-खोडकानां काष्ठबन्धनमिट्टी की बडी२ नांदे थीं जो सदा घोडों के मूत्र से भरी रहती थीं। अप्पेगइयाओ हत्थिमुत्तभरियाओ' कोई२ एसी भी थीं जिनमें हाथियों का मूत्र भरा रहता था ! 'अप्पेगइयाओ उद्यमुत्तभरियाओ' कितनीक ऐसी भी थीं जो ऊंटो के मूत्र से लबालब भरी हुई थीं । 'अप्पेगइयाओ गोमुत्तभरियाओ' कितनीक एसी थीं कि जिन में गायों का मूत्र भरा हुआ था । 'अप्पेगडयाओ एलयमुत्तमरियाओ' कुछ ऐसी भी थीं कि जिन में मेढों का मूत्र भरा रहता था। 'अप्पेगइयाओ महिसमुत्तभरियाओ' कितनीक उनमें ऐसो भी थीं कि जो भैसो के मूत्र से भरी रहा करती थीं। यहां 'बहुपडिपुण्णाओ चिट्ठति' में 'बहुपडिपुण्णाओ' यह पद लबालब भरने के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । तस्स णं दुजोहणस्स चारगपालगस्स वहवे हत्थंदुयाण य पायंदुयाण य हडीण य णियलाण य संकलाण य पुंजा य णिगरा य' उस चारकपालक दुर्योधन के यहाँ अनेक हस्तान्दुक ती २ मेश घायाना मूत्रथा मरी रामपामा ती ती. 'अप्पेगइयाओ हत्यिमुत्तभरियाओ' ध मेवी ५९ हती ४ मा डाथीमाना भूत्र मर्या' २ता तi. 'अप्पेगइयाओ उद्दमुत्तभरियाओ' टमी मेवी पण ती २ टोना भूतथा भू मरेसी २४ती. 'अप्पेगइयाओ गोमुत्तभरियाओ' els मेवी ती रेमा आयौनु भूत्र मरे तु 'अप्पेगइयाओ एलयमुत्तभरियाओ' als भवी ती मा घटानां भूत्र मा रहेत. 'अप्पेगइयाओ महिसमुत्तभरियाओ' ४सी समां मेवी ती रेभा पायानां भूत्र मरेखi gii; माही 'बहुपडिपुण्णाओ चिति' म 'बहुपडिपुण्णाओ' से पह पू३पूरी नरवाना म योजभेल छे. 'तस्स णं दुज्जोहणस्स चारगपालगस्स वहवे हत्थंदुयाण य पायंदुयाण य इडीण य णियलाण य सकलाण य पुंजा य णिगरा य' ते या२४-पास
SR No.009356
Book TitleVipaksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages825
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size58 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy