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________________ % E ३३४ विपाकश्रुते 'तए णं से विजए चोरसेणावई ततः खलु स विजयश्चोरसेनापतिः 'वंदसिरीए भारियाए अंतिए' स्कन्दश्रियः भार्यायाः अन्तिके 'एयमटुं सोचा णिसम्म खंदसिरिं भारियं एवं वयासी-एतमर्थ श्रुत्वा निशम्य स्कन्दश्रियं भार्याम् एवमवानीद-'अहामु यथासुरवं कुरु 'देवाणुप्पिए' हे देवानुप्रिये !, इत्युक्त्वा 'एयम€ एतमर्थ . स 'पडिमुणेई प्रतिशृणोति-स्वीकरोति । 'तयाणंनर तदनन्तरं 'सा खंदसिरी भारिया विजएणं चोरसेणावणा अभणु गाया समाणी सा स्कन्दश्रीर्भार्या विजयेन चोरसेनापतिनाऽभ्यनुज्ञाता सती 'हतुटु० बहुर्हि मित्तजार अण्णाहिं बहुहिं चोरमहिलाहिं सद्धिं हृष्टतुष्टहृदया बहुभिः मित्र-यावत्-परिजनमहिलाभिः अन्याभिश्च बहुभिश्वोरमहिलाभिः साधे 'संपरिबुला पहाया जाब विभूसिया परिसता स्नाता यावत् सर्वाङ्कारविभूषिता 'विउलं 'तए णं से विजए बोरसेणावई खनसिरीए भारियाए अंतिए एयमद्वं सोचा णिसम्म इस प्रकार विजय बोरसेनापति ने अपनी भार्या स्कंझी के मुख से इस अभिप्राय को सुनकर और उसका अच्छीतरह विचार कर 'खंदसिरिं भारियं एवं वयासी अपनी भार्या स्कंदश्री से इस प्रकार कहा कि-'अहामुहं देवाणुप्पिए' हे देवातुप्रिये ! तुझे जिस मे सुख मिले वैसा करो 'एयमद्वं पडिमुणेई इस प्रकार कहकर उसने उसके अभिप्राय को स्वीकृत कर लिया। 'तयाणंतरं सा खंदसिरी भारिया इस के बाद उस स्कंदश्री भार्या ने 'विजएणं चोरसेणावणा एवमभगुण्णाया समाणी' जब कि उसको अपने पति विजय चोरसेनापति की आज्ञा मिल चुकी तब हट्ट बहुहिं मित्त-जाव अप्णाहिं बहुर्ति चोरमहिलाहिं सद्धिं' हृष्ट तुष्ट हृदय होकर अनेक मित्रादिकों एवं चोरों की महिलाओं के साथ 'संपरिखुडा हाया जाव विभूसिया धिरकर नहा पति यी नथी. तेनी पूर्ति माटे चिन्तातुर छुः 'तए णं से विजए चोरसेणारई खंदसिरीए भारियाए अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म' मा प्रभार વિજય ચેરસેનાપતિએ પિતાની સ્ત્રી સ્કંદશ્રીના મુખથી આ અભિપ્રાય સાંભળીને અને तेविसारी शते विया२ दशने 'खंदसिरि भारियं एवं बयासी' पोतानी श्री श्रीने मा प्रभा धुं :-अहामुहं देवाणुप्पिए वानुप्रिये! तने मा जुस भणे ते प्रमाणे ३. 'एयमदं पटिमुणे मा प्रभारी डीने तेरे तेना भलिभायने वा सीधी. 'तयांणतरं सा खंदसिरी भारिया ते पछी श्री श्री विजएणं चोरणावरुणा एवमभणुग्णाया समाणी' ल्याने पोतना पति विन्य बोरसेनतिनी भासा भजी गई त्यारे 'हतुट्ठ वहुहिं मित्त-जाव अण्णाहि बहुहिं चोरमहिलाहिं सद्धि -हेय मनान
SR No.009356
Book TitleVipaksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages825
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size58 MB
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