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________________ २८२ विपाकश्रुते बशेषः, त्रिभागेभ्योऽवशेषः - त्रिभागावशेषस्तस्मिन् दिवसे दिवसस्य चतुर्थप्रहरे इत्यर्थः, 'सूळ भिण्णे कए समाणे' शूलभिन्नः कृतः सन्, 'कालमासे काळं किच्चा' कालमासे कालं कृत्वा 'इमी से रयणप्पभाए पुढ़वीए' अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां 'रइयत्ताए' नैरयिकतया 'उववज्जिदिइ' उत्पत्स्यते । 'से णं तओ अनंतरं स खलु ततोऽनन्तरम् 'उच्चट्टित्ता' उद्वर्त्य = निःसृत्य, 'इदेव जंबूदीवे दीवे भारहे नासे' इत्र जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे 'वेयइडगिरिपायमूले' वैताढचगिरिपाद - सूळे वैताढ्यनामक पर्वताधोभागे 'वाणरकुलंसि' वानरकुले 'वाणरचाए' वानरतया 'उत्रवज्जिहि ' उत्पत्स्यते । " से णं तत्थ उम्मुक्कवालभावे' स खलु तत्रोन्मु क्तवालभावः=बाल्यावस्थामतिक्रान्तः, 'तिरियभोए' तिर्यग्भोगेषु 'मुच्छिए' मूच्छिनः = आसक्तः 'गिद्धे' गृद्धः = आकाङ्क्षावान् 'गढिए' ग्रथितः तत्मेमजारबद्धः, 'अज्झोववणे' अध्युपपन्नः - अधि= आधिक्येन उपपन्नः = संलग्नमनाः सन् ही भाग से अवशिष्ट दिवस में-दिवस के चतुर्थ प्रहर में 'मूलभिण्णे कप' शूल से विदीर्ण हो, 'इमीसे रयणप्पभाए पुढ़वीए' इस रत्नप्रभा पृथिवी में 'रइयत्ताए उबवज्जिहिइ' नारकी की पर्याय से उत्पन्न होगा । ' से णं तओ अणतरं उन्नहित्ता' वहां से बाद में निकल कर ' इहेव जंबुद्दी दीवे भारहे वासे वेयड्ढगिरिपायमूले वाणरकुलंसि वाणरत्ताए उबज्जिहि ' यह इमी जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में जो वैताढ्य पर्वत है, उसको तलहटी में वानरकुल में वानर की पर्याय से उत्पन्न होगा । से गं तत्थ उम्मुकवालयाने तिरियभोएस मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोनवणे जाए जाए वाणरपोए हे' वहां पर जब यह बाल्य अवस्था को अतिक्रान्त होकर यौवन अवस्थावाला होगा, तब तिर्यचसंबंधी भोगों में सूच्छित गृह, एवं तत्संबंधी अधिक आसक्ति में रात-दिन जकता रहकर, तथा 'अज्झाववण्णे' अध्युपपन्न - उन्हीं के सेवन में क्षण २ थोथा अरमां 'मूलभिप्रो कए' शूलथी वही था, 'इमी से रयणप्पभाए पुढचीए' म रत्नप्रभा पृथिवीमां 'णेरइयत्ताए उववज्जिहिइ' नारडीना पर्यायथी उत्पन्न थशे ' से णं तओ अनंतरं उच्चट्टित्ता' पछी त्यांथी, नीजीने ' इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वेयगिरिपायमुळे वाणरकुलंसि वाणरत्ताए उनवज्जिहि ते આ જ મૂદ્દીપના ભરતક્ષેત્રમાં જે વૈતાઢય પર્વત છે, તેની તળેટી-ાં વાનરકુલમાં વાનની પર્યાયથી ઉત્પન્ન थशे. ' से णं तत्थ उम्मुक्कवालभावे तिरियभोएसमुच्छिए गिद्धे गढिए अशोचवणं, जाए जाए वाणरपोए बहेडिड़ ' त्यां ते णास अवस्थाने पूरी मरीने क्यारे ચૌવન વ્યવસ્થામાં આવÄ ત્યારે ત ચસમ્બન્ધી બેગમાં મૂર્છિત ગૃદ્ધ અને તે "
SR No.009356
Book TitleVipaksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages825
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size58 MB
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