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________________ २३० विपाश्रुते नगरगवीनां नगरवलीवर्दानां नगरपड्डिकानां नगरमहिषीणां नगरमहिषाणां नगर पभाणाम्, अधःस्तनवृषणपुच्छककुदादिभिरग्निपक्कैस्तलितैभर्जितैः परिशुष्कैलबणादिसंस्कृतैः सहानेकविधां सुरां मधु चास्वादयन्ती विस्वादयन्ती परिभाजयन्ती परिभुञ्जाना दोहदं विनयामीत्यर्थो बोध्यः । इति कृत्वा इति मनसि निधाय तंसि 'दोहलंसि अविणिजमागंसि' तस्मिन् दोहदे अविनीयमाने-अपूर्यमाणे सति, 'मुक्का' शुष्का 'भुक्खा' बुभुक्षिता 'निम्मंसा निर्मासा 'ओलग्गा अबरुग्णा 'ओल गसरीरा' अबरुग्णशरीरा, 'गित्तेया' निस्तेजाः गतकान्तिः, 'दीणविषण्णवयणा' दीनविवर्णवदना-दीनं-दैन्ययुकम्, अत एव विवर्ण-शोभारहितं, वदनं-मुख यस्याः आदि से लेकर सांड पर्यत के जानवरों के काटे हुए एवं संडासी द्वारा पकड कर अग्नि में पकाये हुए, तले हुए, झुंजे हुए,सुकाये हुए, नमक आदि मसाला ले तैयार किये हुए ऊधस से लेकर सास्नातक के मांस को सुरा. मधु, मेरक आदि जातिवाली मदिरा के साथ खाऊँ, खिलाऊँ और विभक्तकर दूसरों को भी दूं, इस प्रकार मैं अपना दोहद् पूर्ण करूँ । इस प्रकार उसने विचार किया। परन्तु 'तसि दोहसि अविणिजमाणसि' उस के उस दाहले की पूर्ति नहीं हुई, इसलिये वह दिन प्रतिदिन 'मुक्का' म्यूकने लगी, और 'झुक्वा' भूखी रहने लगी, 'निम्मंसा पर्याप्त भोजन नहीं खाने के कारण उसका शरीर भी मांसरहित हो गया और वह 'ओलग्गा' 'ओलग्गसरीरा' बीमार जैसी रहने लगी, 'नित्तेया' कांति उसकी फीकी पड गई, 'दीणविवण्णवयणा पंडुइयमुही' मुख भी उसका दीन और शोभा से रहित होता हुआ જાનવરોના કાપેલા અને સાણસીથી પકડીને અગ્નિમાં પકાવેલા, તળેલા, ભૂજેલા. સુકાવેલા, અને મીઠો આદિ મસાલાથી તૈયાર કરેલા ઉધસથી લઈને સાસ્ના (ગળાની નીચે લટકતી ચામડી) સુધીના માંસને સુપા, મધુ, મેક આદિ જાતિની મદિરા સાથે ખાઉં, ખવરાવું, અને વહેંચીને બીજાને આપું આ પ્રકારે હું પિતાન દેદને પૂર્ણ ४३.-24 तेथे वि-२२ या तु तंसि दोहलंसि अविणिज्जमागंसि' मुक्का भुक्खा निम्मंसा ओलग्गा ओलग्ग-सरीरा नित्तया दीणविषण्णवयणा जाव झियाय' तेन ते हानी पूर्ति 45 नड, ते माटेने 'सका' हन-प्रतिदिन सूपर anी, भने 'भुक्खा' ममी २७वा सागी, 'निम्मंसा' पुरी રીતે ભેજન નહિ ખાવાથી તેનું શરીર પણ માંસ વિનાનું થઈ ગયું, અને તે 'ओलग्गा ओलांगसरीरा' भीमा२ वी रहेका साजी, 'नित्तया तिही ने शी ५0 21', 'दीण विवण्णवयणी पंडुइयमुही' भुम पर दीन भने
SR No.009356
Book TitleVipaksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages825
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size58 MB
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