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________________ १५८ विपाकश्रुत्ते तत्र पोडशमु नाडीषु 'अट्ठ पूयप्पवहा, अष्टौ पूयप्रबहाः, 'अह सोणियप्पवहा' अष्टौ शोणितप्रवहा इति । केन प्रकारेण ता अष्टाष्टसंख्यका इति जिज्ञासायामाह-'दुवे दुवे इत्यादि । 'दुधे दुवे द्वे द्वे-द्वे पूयप्रवरे द्वे शोणितमवहे 'कण्णंतरेम' कर्णान्तरयोः श्रोत्ररन्ध्रयोः, 'दुवे दुवे द्वे द्वे 'अच्छितरेम' अक्ष्यन्तरयोः, 'दुवे दुवे नक्कंतरेम' द्वे वे नासान्तरयोः 'दुवे दुवे द्वे द्वेद्वे प्यप्रबहे, द्वे शोणितप्रवहे 'धमणिरंतरेमु' धमन्यन्तरेवु-हृदयकोष्ठकान्तर्वतिनाहीमध्येषु, 'अभिक्खणं अभिक्खणं अभीक्ष्णमभीक्ष्णं-पुनः पुनः 'पूर्व च सोणियं च पूयं च शोणितं च 'परिस्सवमाणीओ२ चेव परिस्रवन्त्यः२ एद-वहन्त्यः२ एक "चिट्ठति तिष्ठन्ति । 'तस्स णं दारगस्स गन्भगयस्स चेव तस्य खलु दारकस्य गर्भगतस्यैव 'अग्गिए नामं वाही अग्निकनामको व्याधिः-भस्मकनामको वातजनितो रोगविशेषः 'पाउन्भूए प्रादुर्भुतः । अग्निकन्याधेः स्वभावमाइ-'जेणं से' इत्यादि । शरीर से बाहिर पीप आदि को इस प्रकार ये सोलह नाडियां जो शरीर के भीतर और बाहर धिर एवं पीप आदि अपवित्र और अशुचि द्रवरूप रस को वहाती थीं, उनमें से दो दो नाडियां कानों के दोनों रन्ध्रों में, दो दो आंखों के भीतर में, दो दो नाक के नयनों के भीतर में और दो दो हृदयकोष्ठ के भीतर रही हुई नाडियों के बीच में निरन्तर बार२ पीप और शोणित को बाहर और भीतर पहाती रहती थीं। 'तस्स पं दारगरस गभगयस्स चेव अग्गिए नामं वाही पाउन्भूए, जेणं से दारए जे आहारेड़ से णं खिप्पामेव विद्धंसमागच्छइ, पूयत्ताए य सोणियत्ताए य परिणमइ तथा गर्भ में रहे हुए ही इस मृगापुत्र का वहीं पर एक भस्मक व्याधि भी उत्पन्न हो चुकी थी, जिससे जो कुछ भी यह माता के द्वारा खाये हुए આ પ્રમાણે સેળ નાડીઓ શરીરની અંદર અને બહાર લેહી અને પરૂ આદિ અપવિત્ર પ્રવાહીરૂપ રસને વહેવરાવતી હતી, તેમાંથી બે બે નાડીઓ કાનના બને છિદ્રોમાં, બે બે નાડીઓ નેત્રની અદર, બે બે નાકના નસ્કેરામાં, એ બે નાડી હદયના કઠાની અંદર રહેલી નાડીના વચમાં નિરંતર વારંવાર પરૂ અને ધિરને पार भने म वापती ती. 'तस्स पं दारगस्स गभगयस्स देव अग्गिए नाम दाही पाउन्भूए, जणं से दारए जे आहारइ, से णं खिप्पामेव विद्धंसमागच्छइ, पूयत्ताए य सोणियत्ताए य परिणमइ' तमा मसभा २ला . મૃગાપુત્રને એક ભસ્મક નામને રેગ પણ ઉત્પન્ન થઈ ચુક્યું હતું, તેથી તેની માતા
SR No.009356
Book TitleVipaksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages825
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size58 MB
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