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________________ अभिलपन, “अहंदुहवस? आर्तदुःखार्तवशातः-आतः मनसा दुःखितः, दुःखात:-देहेन, वशातः राज्यसमासक्तेन्द्रियवशेन तत्सुखवियोगसम्भावनया पीडितः, एषां कर्मधारये आतंदुःखार्तवशातः-आर्तध्यानोपगत इत्यर्थः, 'अड्हाइजाई वाससयाई' अर्धतृतीयानि वर्षशतानि-सार्धद्वयवर्षशतानि, 'परमाउयं' परमायुष्कम्-उत्कृष्टायुष्कं 'पालित्ता' पालयित्वा 'कालमासे कालं किच्चा' कालमासे कालं कृत्वा 'इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए' अस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्याः, 'उक्कोसेणं' उत्कर्षेण 'सागरोवमटिइएसु' सागरोपमस्थितिकेषु 'नेर इएसु नेरइयत्ताए उववन्ने नैरयिकेषु नैरयिकतया उत्पन्नः। 'से णं' स खलु 'तओ अणंतरं' ततोऽनन्तरं ततः पश्चात, 'उबट्टित्ता' उद्वर्त्य-निःसृत्य का, स्पृहा-चाहना का और अभिलाषा-वाञ्छा का यदि कोई विषय था तो वह एक राज्य ही था, उसी में यह स्पृहाशील और अभिलाषासंपन्न बना हुआ था। 'अट्टदुहट्टवस?' मानसिक दुःखों और शारीरिक कष्टों की परंपरा से, एवं इन्द्रियसंबंधी वैषयिक सुखों की अभिलाषा से अत्यंत दुःखित बना हुआ यह राजा 'अढाइजाई वाससयाई परमाउयं पालइत्ता' दाई सौ (२५०) वर्ष की उत्कृष्ट आयु का पालन कर 'कालमासे कालं किच्चा' अन्त में स्थिति के क्षय होते ही काल प्राप्त होकर, 'इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए' इस रत्नप्रभा पृथिवी के ' उक्कोसेणं सागरोवमट्टिइएसु नेरइएसु नेरइयत्ताएं उववन्ने' उत्कृष्ट एक लागर की स्थितिवाले प्रथम नरकमें नारकीरूप से उत्पन्न हुआ। वहां के अनंत दुःखों को भोगते२ जब इसकी नारकीय स्थिति पूर्ण हो गई, तब ‘से' वह 'अणंतरं' पश्चात् 'तो' वहां से મારી પાસેથી છુટી ન જાય', તેથી તેને પ્રાર્થના, પૃહા અને અભિલાષાને કોઈપણ વિષય હોય તો તે એક રાજ્ય જ હતું, તેથી રાજ્યમાં જ તેની સ્પૃહા અને અભિલાષા यम रहेती ती. 'अट्टदुहट्टवसट्टे' भानसि । भने शारी२ि४ टोनी પરંપરાથી, અને ઇન્દ્રિયસંબંધી વિષયના સુખની અભિલાષાથી બહુજ દુઃખિત मनसो ते २it 'अहाइज्जाइं वाससयाइं परमाउयं पालइत्ता' मढी (२५०) वर्ष 2 मायुष्य पालन ४शन 'कालमासे कालं किच्चा' मन्तमा मायुस्थितिने क्षय यतir stu (म२९) पाभीने 'इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए' ये २नमा पृथ्वीना 'उक्कोसेणं सागरोवमटूिठइएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उववन्ने' (कृष्ट मे सागरापभनी स्थितिमा प्रथम-पडसा-न२४i ना२५ अत्पन्न થયે. ત્યાંના અનંત દુઓને ભેગવતે–ભગવતે જ્યારે તેની નારકીની સ્થિતિ પૂરી
SR No.009356
Book TitleVipaksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages825
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size58 MB
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