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________________ ७८ D विपाकश्रुते त्रीन् वारान् 'आयाहिणपयाहिणं' आदक्षिणप्रदक्षिणम् अञ्जलिपुटं वद्ध्वा तं बद्धाञ्जलिपुटं दक्षिणकर्णमूलत आरभ्य ललाटपदेशेन वामकर्णान्तिकेन चक्राकार त्रिः परिभ्राम्य ललाटदेशे स्थापनरूपं 'करेइ' करोति, 'करित्ता' कृत्वा-आदक्षिणप्रदक्षिणं कृत्वा 'वंदइ नमंसई' वन्दते नमस्यति, वंदित्ता नमंसित्ता जाव पज्जुवासई' वन्दित्या नमस्यित्वा यावत् पर्युपास्ते । 'तए णं समणे भगवं महावीरे' ततः खलु श्रमणो भगवान् महावीरो 'विजयस्स रनो' विजयस्य विजयनामकस्य राज्ञः 'तीसे य महइमहालयाए परिसाए' तस्याश्च महातिमहत्याः परिषदः 'विचित्तं' विचित्रम्-अनेकविधं-श्रुतचारित्ररूपं 'धम्म परिकहेइ' धर्म परिकथयति, 'जहा जीवा बझंति' यथा दूसरा भाग स्वयं पकड कर उसके सहारे उसे लेकर उसी मार्ग से आगे२ चला। इस प्रकार उस चक्षुष्मान् पुरुष के सहारे चलतार वह अन्ध पुरुष जहाँ भगवान महावीर विराजमान थे वहां क्रमशः पहुँचा, 'उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ' पहुँचते ही उसके साथ उसने भगवान महावीर को हाथ जोडकर तीनधार अंजलि की, 'करित्ता वंदइ नमसई' फिर वंदना की और नमस्कार किया, 'वंदित्ता नमंसित्ता जाव पज्जुवासई' वन्दना नमस्कार करने बाद त्रिविधरूप से उनकी सेवा करने लगा। 'तए णं समणे भगवं महावीरे विजयस्स रनो तीसे य महइमहालयाए परिसाए विचित्तं धम्म परिकहेइ' तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर ने विजयनरेश और महती जनमेदिनी के समक्ष श्रुत और चारित्ररूप धर्म की देशना दी, जिसमें यह प्रकट किया गया कि 'जहा जीवा बज्झति' यह जीव कर्मों से 'આપી બીજે છેડે પિતાના હાથમાં રાખી, તે અંધ માણસને લઈને તેજ માર્ગે ચાલતે છે. આ પ્રકારે તે નેત્રવાળા માણસની સહાયતાથી ચાલતો ર તે અંધ भारस या भगवान महावीर ५२मान तात्या जड पडायो'उवागच्छित्ता' तिक्खुत्तो आयाक्षिण-पयादिणं करेइ' पडायतानी साथ रोमणे मावान महावीरने १५ डीने पा२ मreी ४६१, 'करित्ता वंदइ नमसइ' । पहना ४ी भने नमः४२ ४ा, 'वंदित्ता नमंसित्ता जाव पज्जुवासइ' पहना नभ२४।२ ४ पछी विविध ३५थी तभनी सेवा ४२१८ लाया. 'तएणं समणे भगवं महावीरे विजयस्स रन्नो तीसे यं मइमहालयाए परिसाए विचित्तं धम्म परिकहेइ' ते पछी श्रम मावान અડાવી, વિજય રાજા અને મોટી માનવમેદિનીના સમક્ષ શ્રત અને ચારિત્રરૂપ ધર્મને देश माध्य. ते पदेशमा प्रगट यु.- 'जहा जीवा वज्झति' मा व
SR No.009356
Book TitleVipaksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages825
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size58 MB
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