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________________ __ ... ... ... ... .. :: ..', - -', विपकते एते वहब उग्रा भोगा राजन्या एक्ष्वाका ज्ञाताः कौरव्याः क्षत्रियाः क्षत्रियपुत्राः भटा भटपुत्राः'........'मृगाग्रामस्य नगरस्य मध्य मध्येन-इति । तत्र चैत्यमहः= स्मारकोत्सव इति । 'तए णं' ततः खलु ‘से पुरिसे' स सचक्षुष्कः पुरुपः 'तं जाइअंधं पुरिसं एवं' जात्यन्धं पुरुपम् एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'वयासी' अवादीत्-'नो खलु देवाणुप्पिया !' नो खलु हे देवानुप्रिय ! अद्य मृगाग्रामे नगरे 'इंदमहे इ वा जाब निग्गच्छंति' इन्द्रमहः इन्द्रोत्सवो यावद् निर्गच्छन्ति, ‘एवं खलु देवाणुप्पिया !' एवं खलु हे देवानुप्रिय ! 'समणे जाव' श्रमणो यावत् , इह यावच्छब्देनैवं दृश्यम्-भगवान् महावीरः पूर्वानुपूर्व्या चरन् ग्रामानुग्रामं द्रवन् इह समागतः, इह संप्राप्तः, इह समवसृतः, इहैव मृगाग्रामे वाह्यप्रदेशे चन्दनपादपोद्याने यथाप्रतिरूपमवग्रहमवगृह्य संयमेन तपसाऽऽत्मानं भावयन् 'विहरइ' विहरति । 'तए णं एए' ततः खलु एते जो ये बहुतले उग्र,भोग, राजन्य, ईक्ष्वाकुवंशी, ज्ञातवंशी, कौरव, क्षत्रिय, क्षत्रियपुत्र, भट और भटपुत्र आदि सृगाग्राम नगर के मध्यमध्य से होकर चले जा रहे हैं ? । 'तए णं से पुरिसे तं जाइअंधं पुरिसं' इस यात को सुनकर वह चक्षुष्मान् पुरुष उस अंध पुरुष से ‘एवं वयासी' इस प्रकार बोला कि-'देवाणुप्पिया' हे देवानुप्रिय ! 'नो इंदमहेइ वा जाव जिग्गच्छति' आज इस नगर में इन्द्रोत्सव आदि नहीं है, किन्तु ‘एवं खलु देवाणुप्पिया !' हे देवानुप्रिय ! बात यह है कि 'समणे जाव विरहइ' असण भगवान महावीर ग्रामानुग्राम विहार करते हुए तप और संयम से आत्मा को भावित करते हुए इस नगर के बाह्य प्रदेश में स्थित चंदनपादप नामके उद्यान में, जो ईशान कोण की ओर है, आये हुए हैं। 'तए णं एए जाव जिग्गच्छंति' इसलिये उनके al, Piorrय, ४ावशी, ज्ञात , २१, क्षत्रिय, क्षत्रियपुत्र, मट, मन लटपुत्र मा भृायाम नाना मध्य-मध्यथा यधने यास्या जय छ. 'तए णं से पुरिसे तं जाइबंधं पुरिसं' मा पात सामगीन ते तो भास-मांमाणे माणुस, मां भारसने भा प्रभारी वा साया है- 'देवाणुप्पिया' वानुप्रिय ! 'नो इंदमहेइ वा जाव जिग्गच्छति' मारे मा नाम -दोत्सव मा नथी, परंतु एवं खलु देवाणुप्पिया' है हेवानुप्रिय! पात मेम छ , 'समणे जाव विहरई' श्रम ભગવાન મહાવીર ગ્રામાનુગ્રામ વિહાર કરતા કરતા, તપ અને સંયમથી આત્માને ભાવિત રતા થકા, આ નગરના બહારના પ્રદેશમાં ઈશાનકેણુમાં રહેલે ચંદનપાદપ નામની गाय छे, त्या पायां छ. 'तए णं एए जाव णिग्गच्छंति' तथा तेभन बहना
SR No.009356
Book TitleVipaksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages825
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size58 MB
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