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________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ. २९ संवेगादि निसप्ततिपदार्थनामानि १९१ विमल केवला लोकेन सकललोकालोकमवलोमयन्ति, सुच्यन्ते - सकलकर्मेभ्यो मुक्ता भवन्ति, ततथ परिनिर्वान्ति=सकलकर्मा दावानलोपशमेन, शीतलीभूता भवन्ति । अतएव सर्वदुःखानां = शरीरमानसानाम्, अन्तम् - आत्यन्तिकविनाशं कुर्वन्ति, सिद्धिगतिनामधेयस्थानप्राप्त्या अन्यावाधसुखसाजो एवन्तीत्यर्थः ॥ अनुसार उचित काल में विधिपूर्वक पालन करके (बहवे जीवा सिज्यंतिबहवः जीवाः सिध्यक्ति) अनेक जीव समस्त कार्यों को कर लेनेके कारण सिद्ध होते हैं, (वुच्झति - बुध्यन्ते) विमल केवलज्ञानरूप आलोक से सकल लोक और अलोकको देखते हैं, (मुच्यंति - मुच्यन्ते) सकल कर्मों से सर्वथा मुक्त होते हैं परिनिव्वायंति - परिनिर्वान्ति तथा सकल कर्मरूप दावानलके इकदम बुझ जाने के कारण शीतलीभूत बन जाते हैं, ( सच्चदुःखाणमंत करेंति - सर्वदुःखाना संतं कुर्वन्ति ) अत एव मानसिक दुःखौका आत्यन्तिक विनाश कर देने के कारण सिद्धि गति नामक स्थानकी प्राप्तिसे अव्याबाध सुखके भोक्ता बन जाते हैं । भावार्थ- सुधर्मा स्वामी श्री जंबरवानीको इस अध्ययनके प्रारंभ करने का उद्देश समझाते हुए कह रहे हैं कि आयुष्मन् । मैले यह अध्ययन भगवान् श्री वर्धमानस्वामी के मुखारविन्दसे सुना है । उन्होंने ऐसा प्रति पादन किया है कि जो मुति इस अध्ययनमें प्रतिपादित संवेग आदि अकर्मतापर्यन्त के गुणों को सम्यक् महाले, प्रतीतिले, सच आदिले, सुनेगा पालन करेगा, योगकी सावधानीपूर्वक इनको अपने जीवन में उतारेगा बहवे जीवा सिज्यंति - बहवः जीवाः सिध्यंतिम व समस्त छायेने री सेवाना अरोसिद्ध थाय छे. बुज्झति - वुध्यन्ते विभण ठेवणज्ञान ३५ माउथी सहज बोउ भने भाउने छे. मुच्चति - मुच्यन्ते स मेथी सर्वथा मुक्त मते हे, परिनिव्वायंति-परिनिर्वान्ति तथा सर्भ ३ हावानजने हम ववाने भरले शीतजलूत मनी लय छे, सव्वदुःखाणमंत करे ति - सर्वदुःखानामन्तं कुर्वन्ति गतमेव ते शारीरिङ અને માનસિક દુઃખાનેા સમૂળગે વિનાશ કરી દેવાના કારણે સિદ્ધગતિ નામના સ્થાનની પ્રાપ્તિથી અવ્યાબાધ સુખના ભાક્તા ખની જાય છે. અધ્યયન ભાવા —શ્રી સુધર્માસ્વામી શ્રી જસ્પૃસ્વામીને આ અધ્યયનને પ્રારંભ કરવાના ઉદ્દેશ સમજાવતાં કહી રહ્યા છે કે, આયુષ્મન ! મે'આ ભગવાન શ્રી વર્ધમાનસ્વામીના મુખારવિંદથી સાંભળેલ છે. એમણે એવું પ્રતિપાદન કરેલ છે કે, જે મુનિ આ અધ્યયનમાં પ્રતિપાદિત સ ંવેગ આદિ અકમતા પર્યંતના ગુણાને સમ્યક્ શ્રદ્ધાર્થો, પ્રતીતિથી, સંચે આદિથી, સાંભળશે, પાલન કરશે, ચેાગાત્રયની સાવધાનપૂર્વક આને પેાતાના જીવનમાં ઉતારશે તે
SR No.009355
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1039
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size75 MB
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