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________________ ७३२ उत्तराध्ययनसूत्रे __ स्निग्धस्पर्शभङ्गानाहमूलम्-फॉसओ निर्द्धए जे उ, भैइए से उ वण्णओ। गंधओ रैलओ चै भैइए संठाणओ वि य ॥४१॥ छाया-स्पर्शतः स्निग्धको यस्तु भाज्यः स तु वर्णतः । गन्धतो रसतच, भाज्यः संस्थानतोऽपि च ॥४१॥ टीका-'फासओ निद्धए' इत्यादि व्याख्या पूर्ववत् । स्निग्धस्यापि सप्तदशमङ्गा पूर्ववदिति भावः ॥४१॥ माना जाता है तब (से-सः) वह (वण्णओ-वर्णतः) वर्णकी अपेक्षा (भइए-भाज्यः) भाज्य हो जाता है। इसी तरह वह (गंधओ रसओ वि य संठाणओ भइए-गंधतः रसतः अपि च संस्थानतश्च भाज्य:) गंधकी अपेक्षा, रसकी अपेक्षा एवं संस्थानकी अपेक्षा भी भाज्य होता है। यहां पर भी पहिलेकी तरह सत्रह भंग होते है॥४०॥ अब स्निग्ध (चिकने) स्पर्शके भंगोंको कहते हैं-'फालओ निद्धए' इत्यादि । अन्वयार्थ-(जे-यः) जो स्कंध आदि (फासओ-स्पर्शतः) स्पर्श परिणामसे परिणत होनेके कारण जब (निद्धए-स्निग्धकः) स्निग्ध स्पर्शवाला कहा जाता है तब (से-सः) वह (वण्णओ भइए-वर्णतः भाज्या ) वर्णगुणकी अपेक्षा भाज्य होता है। इसी तरह (गंधओ रसओ वि य संठाणओ भइए-गन्धतः रसतः अपि च संस्थानतश्च भाज्य:) वह गन्ध, रस तथा संस्थानको अपेक्षा भी भाज्य माना गया है। इसके भी पूर्वकी तरह खत्रह भंग होते हैं ॥४१॥ छ त्यारे से-सः । वण्णओ-वर्णतः पनी अपेक्षा भइए-भाज्यः मान्य थ/ तय छे. मा प्रमाणे ते गंधओ रसओ विय संठाणओ भइए - गधत रसतः अपि च संस्थानतश्च भाज्य धनी मपेक्षामे, २सनी अपेक्षा मले. संस्थानती अपेक्षा પણ ભાજ્ય થાય છે. અહીંયા પણ પ્રથમની માફક સત્તર ભંગ જાણવી જોઈએ स्निग्ध पशना मान ४ छ-' फासओ निद्धए " त्याहि. ___ मन्वयार्थ-जे-य २ २४५ मा फासओ-स्पर्शत. २५श परिणामयी परित होवान। ४।२२ न्यारे निद्धए-स्निग्धक. सिन २५श ४ामा भाव छ त्यारे से-सः ते वण्णओ भइए-वर्णतः भाज्यः पशु शुगुनी मपेक्षाये मान्य थाय छ, म प्रमाणे ते गंधओ रसओ विय संठाणआ भइए-गन्धतः रसतः अपि च संस्थानतञ्च भाज्यः गंध, २स तथा संस्थाननी अपेक्षा ५५ - માનવામાં આવેલ છે. આના પણ પ્રથમની માફક સત્તર ભંગ થાય છે. ૧૪૧
SR No.009355
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1039
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size75 MB
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