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________________ ७२२ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३६ स्पर्शभङ्गनिरूपणम् अथ गुरुस्पर्शभङ्गानाह-- मूलम्-फासओ गुरुए जे उ, भईए ले उ वपणओ। गंधओ रसओ चेते', अइए लंठाणेओ वि थे ॥३७॥ छाया--स्पर्शतो शुरुको यस्तु, भाज्यः स तु वर्णतः । गन्धतो रसतश्चैव, भाज्या संस्थानतोऽपि च ॥ ३७॥ टीका-'फालओ गुरुए ' इत्यादि-- व्याख्या पूर्ववत् । अत्राऽपि प्राध्वत्सप्तदश १७ भङ्गा भवन्तीति भावः ॥ ३७॥ होता है। इसी तरह वह (गंधओ रलओ चेच वि य संठाणओ भइएगंधतः रसतश्चैव अपि च संस्थानतः भाज्य:) गंधकी अपेक्षा रसकी अपेक्षा और संस्थानकी अपेक्षा भाज्य होता है। कर्कश स्पर्शकी तरह मृदुके सत्रह भंग होते हैं ॥३६॥ अब गुरु-भारी-स्पर्शके भंग कहते हैं-'फालओ गुरुए' इत्यादि । अन्वयार्थ (जे-यः) जो स्कंध आदि (फासओ-स्पर्शतः) स्पर्श परिणामकी अपेक्षा (गुरुए- गुरुको सवति) भारी स्पर्शवाला होता है (से-सः) वह (वण्णओ-वर्णतः) वर्णकी अपेक्षा (भइए-आज्यः) भाज्य होता है। इसी तरह वह (गंधओ रसओ विथ संठाणओभइए-गंधतः रसतः अपि च संस्थानतः भाज्यः ) गंधकी अपेक्षा, रसकी अपेक्षा और संस्थानकी अपेक्षा भी भाज्य होता है। पहिलेकी तरह इसके भी सत्रह भंग होते हैं ॥३७॥ रसओ चेव वि य संठाणओ भइएनधितः रसतश्चैव अपि च संस्थानतश्च भाज्यः ગંધની અપેક્ષા રસની અપેક્ષા અને સંસ્થાનની અપેક્ષા ભાજ્ય હોય છે. કર્કશ સ્પર્શની માફક મૃદુ સ્પર્શવાળા સ્કંધના પણ સત્તર ભંગ હોય છે, કે ૩૬ डवे गुरु-दारे-२५र्शना मगने हे छ.-" फासओ गुरुए" त्याहि. भन्स्यार्थ-जे-च. रे ४७ माह फासओ-स्पर्शतः २५ परिणामनी मपेक्षाये गुरुए-गुरुको भवति मारे २५र्शाणा डोय छे से-सः ते वण्णओवर्णतः पनी अपेक्ष से भइए-भाज्यः सोय होय छे. भात प्रमाणे ते गंधओ रसओ विय संठाणओ भइए-गंधतः रसतः अपि च संस्थानतः भाज्यः गधनी अपेक्षा રસની અપેક્ષા અને સંસ્થાનની અપેક્ષાએ પણ ભાજ્ય હોય છે. પહેલાંની માફક આના પણ સત્તર ભંગ હોય છે. એ ૩૭ | उ०-९२
SR No.009355
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1039
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size75 MB
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