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________________ ७१६ उत्तराध्ययनसूत्र सम्प्रत्येषामेवपरस्परसंयोजनमाहमूलम्-वण्णेओ जे भंवे किण्हे, भैइए से उ गंधओ। रसओ फासओ चैव, भैइए संठाणेओ वि थे ॥२३॥ छाया--वर्णतो यो भवेत् कृष्णः, भाज्यः स तु गन्धतः । रसतः स्पर्शतश्चैव, भाज्यः संस्थानतोऽपि च ॥२३॥ टीका-'वण्णओ' इत्यादि य: स्कन्धादिः, वर्णतः वर्णमाश्रित्य, कृष्णवर्णवान् भवेत् सतु गन्धतः= गन्धमाश्रित्य, भाज्यः कृष्णः सुगन्धिः, दुर्गन्धो वा भवति, नतु नियतगन्ध एवेति भावः । तथा-रसतः,स्पर्शतश्च, 'चेव' इति समुच्चये, संस्थानतश्चापि भाज्या, होता है वह त्र्यन ओकारवाला जानना चाहिये। जो पीठादिककी तरह चार कोनावाला होता है वह चतुरस्र आकारवाला जानना चाहिये। एवं जो दंडेकी तरह लंबे आकारवाला होता है वह आयत संस्थानवाला जानना चाहिये । २२॥ अब इन वर्णादिकोंका संयोग कहते हैं-'वण्णओ' इत्यादि । अन्वयार्थ (जे-यः) जो स्कन्धादि पुद्गल (वण्णओ-वर्णतः) वर्णकी अपेक्षा (किण्हे भवे-कृष्णः भवेत् ) काला होता है (से-स.) वह (गंधओगंधतः) गंधकी अपेक्षासे (भइए-भाज्यः) भाज्य होता है। अर्थात् जो वर्णकी अपेक्षा काला होता है वह सुगन्धित हो सकता है और दुर्गंधित भी हो सकता है। ऐसा कोई नियम नहीं कि ऐसे वर्णवालेकी नियत गंध हो। इसी तरह (रसओ फासओ चेव विय संठाणओ भइए-रसतः ખુણાવાળા હોય છે તે વ્યસ્ત્ર આકારવાળા જાણવા જોઈએ. જે પીઠ આદિની માફક ચાર ખુણાવાળા હોય છે તે ચતુરસ આકારવાળા જાણવા જોઈએ. ઉપરાંત દાંડીની જેવા લાંબા આકારવાળા હોય છે તે આયત સંસ્થાનવાળા जा न . ॥२२॥ 'वे । वाहिना सयागने ४९ छ–“वण्णओ" त्या. मन्वयार्थ जे-यः २ २४५ माहि पुल वण्णओ-वर्णतः वर्णन अपेक्षा किण्हे भवे-कृष्णः भवेत् ॥ डाय छे से-सः त गंधओ-गंधतः धनी मपेक्षाथी भइए-भाज्यः मान्य होय छे. अर्थात् २ पनी अपेक्षा ४॥ હોય છે. તે સુગંધિત હોઈ શકે છે અને દુર્ગધિત પણ હોઈ શકે છે. એ કોઈ નિયમ નથી કે આવા વર્ણવાળાની નિશ્ચિત થયેલજ ગંધ હોય. આ જ --- प्रभारी रसओ फासओ चेव विय संठाणओ भइए-रसतः स्पर्शतः अपि च सस्था भाज्य. २४, २५, २मन संस्थाननी मपेक्षाथी ५५ भाभने मान्य
SR No.009355
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1039
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size75 MB
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