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________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ. ३६ धर्मादेः क्षेत्रतो निरूपणम् ६९३ अधुनैतानेवे क्षेत्रतः प्राहमूलम्-धम्मांधल्मे य दो चेवे, लोगामिता वियाहियाँ । लोगालोगे य आगासे, समएँ समयखेत्तिएं ॥७॥ छाया-धर्माधर्मी द्वावेव, लोकमात्रौ व्याख्यातौ । लोकालोके चाकाशं, समयः समयक्षेत्रम् ॥७॥ टीका-'धम्माधम्मे' इत्यादि धर्माधौ-धर्मास्तिकायाऽधर्मास्तिकायौ च एतौ-द्वावेव, लोकमात्रौ-लोकपरिमाणौ, व्याख्यातौ-कथितौ, लोकमात्रत्वं चानयोरेतदवष्टब्धाकाशस्यैव लोकत्वात् । अलोकव्यापित्वे तु अनयो जीव पुद्गलानामपि तत्र प्रचारप्रसङ्गेन का सद्भाव होता है। अतः अद्धालमय जो एक समय मात्र है उसमें समुदायरूपता नहीं बन सकती है। इसलिये आवलिका आदिकों की कल्पना केवल व्यवहार के निमित्त ही कल्पित की गई है ऐसा जानना चाहिये ॥ ५॥ ॥ ६॥ अब इन्हीं धर्म अधर्म आकाश और काल के क्षेत्र कहते हैं" धम्माधम्मे" इत्यादि। अन्वयार्थ-(धम्माधम्ने दो चेव लोगभित्ता विद्याहिया-धर्माधर्मी द्वौ एव लोकमात्रौ व्याख्याती) धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय ये दो लोकाकाशपरिमाण कहे गये हैं। अर्थात् जिस प्रकार लोकाकाशके असंख्यात प्रदेश हैं उसी प्रकार दोनों द्रव्यों के ली असंख्यात प्रदेश हैं। तथा ये दो द्रव्या लोकाकाश को व्याप्त कर उसमें रहे हुए हैं । अथवा જવાથી જ ઉત્તર સમયનો સદ્ભાવ થાય છે. આથી અદધા સમય જે એક સમય માત્ર છે. તેમાં સમુદાય રૂપથી થઈ શકતી નથી. આ કારણે આવલિકા આદિકેની કલ્પના ફક્ત વહેવારના નિમિત્તે જ કપિત કરવામાં આવેલ છે. ये नये ॥५॥६॥ वे मे म मम मा ४१२. मने अपने क्षेत्रथा ४९ छ-" धम्माधम्मे" त्यादि। मन्वयार्थ-धम्माधम्मे दोचेव लोगमित्ता वियाहिया-धर्माधर्मा द्वौ एव लोक. मात्रौ व्याख्यातौ धर्मास्तिय मन मस्तिय थे मे द्रव्य शन પરિણામ કહેવામાં આવેલ છે. અર્થાત-જે પ્રમાણે લોકાકાશના અસંખ્યાત પ્રદેશ છે. એ જ પ્રમાણે આ બને દ્રવ્યના પ્રદેશ પણ અસંખ્યાત છે. તથા એ બન્ને દ્રવ્ય લેકાકાશને વ્યાપ્ત કરી એમાં રહેલાં છે. અથવા આ બને
SR No.009355
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1039
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size75 MB
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