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________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३४ स्थितिद्वारनिरूपणम् अन्तर्मुहाधिकानि उत्कृष्टा स्थितिर्भवति, पूर्वभवकालिकान्तमुहूर्तग्रहणादितिभावः इयं च जघन्या सनत्कुमारे, उत्कृष्टा च ब्रह्मलोके, सनत्कुमारे ब्रह्मलोके च एतदायुष्कसंभवात् ननु यदोहान्तर्मुहूर्तमधिकमुच्यते, तर्हि पूर्वत्रापि तदधिक कस्मान्नोच्यते? देवभवलेश्याया एव तत्र विवक्षितत्वात् । उक्तं हि- तेण परंवोच्छामि, लेसाण ठिई उ देवाणं' इति (४७ गा.) एवं चेहान्तमुहूर्ताधिकत्वं विरुद्धमितिचेन्न, __ अभिप्रायापरिज्ञानात् अत्र हि मागुत्तरभरलेश्यापि 'अंतो मुहत्तंमि गए' इतिस्थितिः ) जघन्यरूप से स्थिति है। तथा इस पद्ममलेश्या की (उक्कोसा उत्कृष्टा ) उत्कृष्ट स्थिति (मुहुत्ताहियाइ दस-मुहूर्ताधिकानि दश) अन्तर्मुहूर्त अधिक दस सागरोपस प्रमाण है। यहां पूर्वभवकालीन अन्तमुहूर्त का ग्रहण किया गया है। जघन्य स्थिति इस लेश्या की सनत्कुमार नामके तीसरे देवलोक तथा उत्कृष्टस्थिति पांचवे ब्रह्मदेवलोकमें जानना चाहिये । क्यों कि सनत्कुमार तथा ब्रह्मदेवलोकमें इतनी आयु होती है । शंका-यदि यहां अन्तर्मुहर्त अधिक स्थिति उत्कृष्ट कहते हो तो पूर्व में वह अधिक क्यों नहीं कही है। क्योंकि वहां भी देवलवसंबंधी लेश्या की ही विवक्षा हुई है । " तेण परं वोच्छामि लेसाण ठिई उदेवाणं" ऐसा पहिले कहा है। अतः यहां अन्तर्मुहूर्त अधिक जो कहा है वह विरुद्ध पड़ता है। उत्तर-ऐसा नहीं कहना चाहिये कारण कि इस प्रकार कहने का क्या अभिप्राय है यह तुम लमझे नहीं हो । यहां पूर्वभव एवं उत्तरभव स्थिति छ तथा मा यसवेश्यानी उक्कोसा-उत्कृष्टा उत्कृष्ट स्थिति मुहुत्ताहियाइ दसमुहुर्राधिकानि दशहस मन्तमुत मधि सागरायम प्रमाण छ.२मही पूलहीन અંન્તમુહૂર્તને ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે. આ વેશ્યાની જઘન્ય સ્થિતિ શ્રી સનસ્કુમાર નામના ત્રીજા દેવલોકમાં તથા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ પાંચમા બ્રહ્મદેવ લોકમાં જાણવી જોઈએ. કેમકે સનકુમાર તથા બ્રહ્મદેવલોકમાં એટલી આયુ હોય છે. શંકા–જે અહીં અંન્તમુહૂર્ત અધિક ઉત્કૃષ્ટ કહે છે તે પૂર્વમાં તે અધિક કેમ કહી નથી ? કેમકે, ત્યાં પણ દેવભવ સંબંધી વેશ્યાની જ વિવક્ષા थ छ, “ तेण परं वोच्छामि लेसाण ठिईउ देवाणं " मा ५i ४ छे. આથી અહીં અંતમુહૂર્ત અધિક જે કહેલ છે તે વિરૂદ્ધ દેખાય છે. ઉત્તર–આ વાત બરાબર નથી. કારણ કે, અમારે કહેવાને અભિપ્રાય તમે સમજ્યા નથી. અહીં પૂર્વભવ અને ઉત્તરભવની વેશ્યા
SR No.009355
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1039
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size75 MB
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