SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 511
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३४ लेश्याध्ययने वर्णद्वारनिरूपणम् ६०५ छाया--जीमूतस्निग्धसंकाशा, गवलरिष्टकसंनिभा । खञ्जननयननिभा, कृष्णलेश्या तु वर्णतः ॥४॥ टीका--'जीमूयनिद्धसंकासा' इत्यादि-- कृष्णलेश्या-कृष्णऽऽख्यालेश्या तु-वर्णतः-वर्णमाश्रित्य, जीमूतस्निग्धसंकाशा-सजलत्वेन स्निग्धो यो जीमूतो मेघस्तत्सदृशीत्यर्थः, विशेषणवाचकस्य स्निग्धशब्दस्य परप्रयोग आपत्वात् , तथा-गवलरिष्टकसंनिभा-गवलं महिपशृङ्ग, रिष्टकः 'आरीठा' नाम्ना प्रसिद्धः फेनिलः-फलविशेषः, तत्संनिभा तत्सदृशीत्यर्थः, तथा-खञ्जन-नयननिमा-खअनं-स्नेहाभ्यक्त-शकटाक्षघर्षणसमुत्पन्नकज्जलं, तथा-नयनं-नेत्रमध्यवर्ति कृष्णतारा, तत्सदृशी भवति। कृष्णलेश्यापरमकृष्णवर्णा भवतीति भावः॥४॥ नीललेश्याया वर्णमाहमूलम्-नीलासोगसंकासा, चासपिच्छसमप्पभा । वेरुलियनिद्धसंकासा, नीललेसा उ वण्णओ॥५॥ कहते हैं-'जीमूय०' इत्यादि। ___ अन्वयार्थ--(किण्हलेसा-कृष्णलेश्या ) कृष्णलेश्या वर्ण की अपेक्षा (जीमूयनिसंद्धकासा-जीभूतस्निग्धसंकाशा) स्निग्ध सजल काले मेघ के सदृश है। (गवलरिट्ठगसंनिभा-गवलरिष्टकसंनिभा ) भैंस के सींग के सदृश है, आरीठा के सहश है ( खजण नयणनिभा-खञ्जननयननिभा) गाड़ी के ओंगन के समान है। नैत्र के मध्यवर्ती कृष्णतारा के समान है। तात्पर्य कहने का यह है कि यह कृष्णलेश्या परमकृष्ण वर्णवाली है ॥४॥ "जीमूय" त्यादि। मन्वयार्थ-किण्हलेहा-कृष्णलेश्या वेश्या व नी मपेक्षा जीमूयनिद्धसंकासा-जीमूतस्निग्धसंकाशा निय, परेवा rum मेघना समान छे. गवलरिदृसंन्निभा-गवलरिष्टकसंनिभा में सना शमन वा छ, महिनावी छ. खंजण नयणनिमा-खंजननयननिभा गाडीनी भजी समान छ, नेत्रनी वय्येनी पीना સમાન છે. તાત્પર્ય કહેવાનું એ છે કે, આ કૃષ્ણલેશ્યાપરમ કૃષ્ણવર્ણવાળી છે જા
SR No.009355
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1039
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size75 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy