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________________ ५०६ __ उत्तराध्ययनसूत्रे उत्पादने, रक्षणसन्नियोगे, व्यये, वियोगे च तस्य क्व सुखम् । सम्भोगकाले च, अतृप्तिलाभे सति क्व सुखमित्यन्वयः । व्याख्यापूर्ववत् ॥ ४१॥ मूलम्--सहे अतित्ते य परिग्गहल्मि, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुढेि । अतुढिदोलेण दुही परस्सै लोभाविले आर्ययई अदत्त॥४२॥ छाया--शब्दे अतृप्तश्च परिग्रहे, सक्तोपसक्तो न उपैति तुष्टिम् । अतुष्टिदोषेण दुःखी परस्य, लोभाविलः आदत्ते आदत्तम् ॥ ४२ ॥ टीका--'सद्दे अतित्ते' इत्यादि-- शब्दे अतृप्तः, परिग्रहे सक्तोपसक्तश्च, तुष्टि नो पैति, अतुप्टिदोपेण दुःखी उपार्जन हो चुकता है तब ( रक्खणसन्निजोगे-रक्षणसन्नियोगे) इसका विनाश न हो जाय-यह सुझसे छिन न जाय इस अभिप्रायसे युक्त होकर उसकी रक्षा करने में तत्पर रहता है। तथा अपने प्रयोजनमें एवं परके प्रयोजनमें उसका उपयोग करने लगता है । (वए विजोगे य कहं सुहं से-व्यये वियोगे च क्व सुखं तस्य) जब उस वस्तुका विनाश हो जाता है अथवा वह उससे छिन जाती है तो ऐसी दशामें उस मनोज्ञ शब्दमें विमोहित मति हए उस व्यक्तिको एक क्षण भर भी सुख नहीं मिलता है। इसी तरह (संभोगकाले अतित्तिलाभे-संभोगकाले अतृप्तिलाभः) उपभोगकालमें इससे उसको तृप्ति लाभ नहीं होता है । अतः उससे इसको सुख कैसे मिल सकता है ॥४१॥ 'सद्दे ' इत्यादि। अन्वयार्थ-जब यह जीव (सद्दे अतित्त-शन्दे अतृप्तः) शब्दरूप त्यारे रक्खणसन्निजोगे-रक्षणसन्नियोगे मेना विनाश न थJ तय, मा भारी પાસેથી કઈ પડાવી ન લે, આવા અભિપ્રાયથી યુક્ત બનીને તેનું રક્ષણ કરવામાં તત્પર રહે છે. તથા પોતાના પ્રયજનમાં અને બીજાના પ્રજનમાં એને उपयो॥ ४२वा सामी लय छे. वए विजोगे य कहं सुहं से-व्यये वियोगे क्व તવ જ્યારે એ વસ્તુને વિનાશ થઈ જાય છે, અથવા તે એ તેની પાસેથી કઈ પડાવી લ્ય છે, આવી દશામાં તે એ મને જ્ઞ શબ્દમાં વિહિત બનેલ से व्यतिन से क्षण सुम भातुं नथी २मा प्रमाणे संभोगकाले अतित्ति लाभे-सभोगकाले अतृप्तिलाभ उपना मांसनाथी न નથી. આથી તેને સુખને લાભ કયાંથી મળી શકે ? ૪૧ “सद्दे" त्याह! ___ मन्क्याथ ल्यारे से सद्दे अतित्त-शब्दे अतृप्त ०५ ७४३५ विषयमा
SR No.009355
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1039
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size75 MB
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