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________________ प्रयिदर्शिनीटीका अ. ३२ रागस्यानर्थमूलनिरूपणम् तत्र रक्षणं विनाश हेतुश्योऽग्निज् ल.तरकरादिश्यः परिपालनं, संनियोगस्तु स्वपरप्रयो जनेषु सग्यध्यापारणं, तत्र, तथा-व्यये अमिजलारिता विनाशे वियोगे च= राज तरकरादिकृतापहराद् विहरे च सति तस्य रूपानुरागिणः पुरुषरय क्व सुखम्=न क्वचित् सुखं भवति । सुरूपक लत्रक रितुरगादीनामुपार्जन रक्षणादिषु रूपानुरागी, दुःखमेवानुभवतीति भावः। ननु सुरूपद्रव्यसमुपार्जनादिषु सुख माभूत् , संभोगकाले तु भविष्यतीत्याशङ्कयाह-'संभोगकाले य' इत्यादिसंभोगकाले चउपभोगसमयेऽपि अतृप्तिलाभ:-न तृप्तिलाभः-अतृप्तिलाभःतरिमश्च सति तृप्तिप्राप्त्यभावे च क्व सुखमित्यन्वयः । बहुशोऽपि रूपदर्शने करने में लग जाता है एवं उसका उपार्जन होने पर इसका विनाश न हो जाय' इस ख्याल से उसकी रक्षा करने में तत्पर रहा करता है। एवं अपने प्रयोजन में तथा पर के प्रयोजन में उसका उपयोग करता है। यदि वह वस्तु (वये विओगे-व्यये वियोगे) नष्ट हो जाती है अथवा उससे छिनी जाती है तो ऐसी स्थिति में (कहिं सुहु-तस्य क्व सुखम् )उस रूप विमोहित मतिवाले प्राणी के लिये एक क्षण भर भी सुख नहीं मिलता है। इसी तरह (संभोगकाले य अतित्तिलामे कहिं सुहं-संभोगकाले च अतृप्तिलाभे क्व सुखम् ) उपभोग काल में भी इस को तृप्ति नहीं होती है तो उस अवस्था में भी इसको सुख कहां है। ___भावार्थ-रूपवाले पदार्थ में जब यह प्राणी उन्मत्त बन जाता है तब सर्व प्रथम वह उस पदार्थ की बलवान् मूर्छा से मूच्छित हो जाता है। इस दशा में यह उस पदार्थ की प्राप्ति में और प्राप्त होने पर अपने થયા પછી “આને વિનાશ ન થઈ જાય” એવા ખ્યાલથી એની રક્ષા કરવામાં તત્પર રહ્યા કરે છે. આથી પોતાના પ્રયોજનમાં તથા બીજાના પ્રજનમાં એને ४२ छ, न स तु वये विओगे-व्यये वियोगे नष्ट / जय छ मथा मेनी पासेथी । सांयी ये छ त। मेवा (२थतिमा से कहिं सुहतस्य क्व सुखम् २ ३५विभाडित भता प्राना भाटे ४ क्षम२ ५६५ सुस २हेतु नथी मा०८ प्रमाणे संभोगकाले य अतित्तिलाभे कहिं सुह-संभोगकाले च अतृप्तिलाभे क्व सुखम् ५ मा ५ मेने तृप्ति थती नथी मा અવસ્થા પણ એના માટે સુખ આપનાર બનતી નથી. ભાવાર્થ-રૂપવાળા પદાર્થમાં જ્યારે એ પ્રાની ઉન્મત્ત બની જાય છે ત્યારે સહુ પહેલાં તે એ પદાર્થની બલવની મૂચ્છથી મૂચ્છિત થઈ જાય છે. આવી દશામાં એ તે પદાર્થની પ્રાપ્તિમાં તેમજ પ્રાપ્ત થયા પછી પોતાના કર્ત
SR No.009355
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1039
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size75 MB
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