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________________ - - मियदर्शिनी टीका अ० ३० अध्ययनार्थमुपसंहरन् द्विविधतपस फलवर्णनम् ४२१ : अध्ययननार्थमुपसंहरन् द्विविधस्य तपसः फलमाहमूलम्-एवं तवं तु दुविहं, जे सम्मं आयरे मुणी।। सो खिप्पं सव्वसंसारा, विप्पैमुच्चइ पंडिए-त्तिबेमि ॥३७॥ छाया-एवं तपस्तु द्विविधं, यः सम्यगाचरति मुनिः। स क्षिप्रं सर्वसंसाराद् , विप्रमुच्यते पण्डितः । इति ब्रवीमि ।३७॥ टीका-' एवं ' इत्यादि। जिनमें द्रव्यव्युत्सर्ग चार प्रकार का है-गणव्युत्सर्ग, देहव्युत्सर्ग, उपधिव्युत्सर्ग एवं भक्तव्युत्सर्ग। भावव्युत्सर्ग भी चार प्रकारका है-क्रोधव्युस्सर्ग, मानव्युत्सर्ग, मायाव्युत्सर्ग, तथा लोभव्युत्सर्ग ॥३६॥ इस अध्ययनका उपसंहार करते हुए सूत्रकार दोनों प्रकारके तपका फल कहते हैं-' एवं ' इत्यादि। ____ अन्वयार्थ-(एवं तपंतु दुविहं-एवं तपस्तु द्विविध) इस प्रकार बाह्य और आभ्यन्तरके भेदसे द्विविध तपको (जे मुणी सम्मं आयरे-यः मुनिः सम्यगाचरति) जो मुनिजन अच्छी तरह पालन करते हैं (सो पंडिए-सः पण्डितः) वे ही सच्चे पंडित हैं और (खिप्पं सव्वसंसारा विप्पमुच्चहજેમાં દ્રવ્યવ્યત્સર્ગ ચાર પ્રકારના છે. ગુણવ્યુત્સર્ગ, દેહવ્યુત્સર્ગ, ઉપધિવ્યુ. સંગ, અને ભક્તશ્રુત્સર્ગ, ભાવવ્યુત્સર્ગ પણ ચાર પ્રકારના છે. કોધવ્યુત્સર્ગ भानव्युत्सर्ग, भायाव्युत्सम भने सोमव्युत्सम ॥3॥ આ અધ્યયનને ઉપસંહાર કરતાં સૂત્રકાર અને પ્રકારના તપનું ફળ मता छ.-'एवं' त्यादि। भ-क्याथ-एवं तपं तु दुविहं-एवं तपस्तु द्विविधं ॥ प्रमाणे मा भने भस्यता लेया विविध तपने जे मुणी सम्मं आयरे-यः मुनिः सम्यगा. घरतिर भुनिन सारी रीत पासन ४२ छ सो पंडिए-सः पण्डितः मेर सायो यडित छे. मने खिप्पं सव्वसंसारा विप्पमुच्चइ-क्षिप्रं सर्वसंसाराद् विप्र
SR No.009355
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1039
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size75 MB
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