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________________ प्रियदर्शिनी टीका अ. २२ नेमिनाथचरितनिरूपणम् हारे नियमात तम्मिन् अस्थिना-मुन्थिरा मा रानवरकन्या राजीमती माची जाति-मातुश, कुल-पितुश च, शोल-चारित्र च रक्षन्ती तक-त सयमात्र लायमान रयनेमि पदतिक्ष्यमागमकारेण कथयति । शील बसेऽपि जातिकुले रसिते एव भवत इति मा कश्चिन्मन्यतामिति 'जाउ कुल्च' इत्युत्तम् ॥४०॥ सा यदुक्तवती तदुच्यते-- मूलम्-जेडर्सि रुवेण वेसमणो, ललिएंण नलकूबरो। तहीवि ते'ने इच्छामि, जडसि सर्वख पुरदंरो ॥४१॥ छाया-यद्यसि रूपेण श्रवणो, ललितेन नलकवर । . तथापि त्या न उच्छीमि, यद्यसि साक्षात्पुरन्दर. ॥४१॥ टीरा-'जहसि' इत्यादि हे स्थने । यदित्व रूपेग बाण और असम्भवमि, यदि च ललि. तेन ललितकल्या महिलासचेष्टितेनेति यावत् नलवर - नलकूबर नागदेर भाव के अनुमार अभिवत् ग्रहण करने रूप नियम में तया माणातिपात आदि चिरमण रूप नतों में अच्छी तरह नियर पनी हुई (मा-सा) उस साधी राजीमतीने (जाइ कुल गील रस्वमाणी तक नए-जाति कुल शील च रक्षन्ती तक पदति) अपने मातृपक्षरूप जाति की पितृपक्षरूप कुल की एव चारित्रल्प शील की रक्षा करतो हुई मरम से' चलायमान हुग रसनेनि से इस प्रकार कहा--॥४०॥ क्या का मो करते ह? 'जइसि' इत्यादि। अन्वयार्थ--हे रथनेमि ! (जड स्वेण वेसवणो असि-यदि रूपेण वैश्रवणः असि) यदि तुम रूप से कुबेर तुल्य भी हो (ललि. एण नलकपरो-ललितेन नलकूपर) ललित कलाओं से नलकूपर जैसे અભિગ્રહ ગ્રહણ કરવા રૂપ નિયમમા તથા પ્રાણાતિપાત આદિ વિરમણરૂપ વતેમા सातशत स्वी२ मन सा-या ते साखी २०७भतीये जाइ कुल शील रकम्वमाणी तक वए-जाति कुल शील च रक्षन्ति तक वदति पाताना मातृ५६३५ो नातिनी,' પિતૃપલરૂપ કુળની અને ચારિત્રરૂપ શીલની રક્ષા કરતા કરતા સયમથી ચલાયમાન બનેલ રથનેમિને આ પ્રકારે કહ્યુ ૪૦ रामतीये ४ १यु त ४३ छ ---"जडसि" या ! सन्क्या :-- २थनेमि ! जइ रूपेण वेसमणो असि-यदि रूपेण वैश्रमण असि म त ३५मा मुना 41 BI, ललिएण नलकूबरो ललितेन नलवरी
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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